श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी137. महाप्रभु वल्लभाचार्य
श्रीमदाचार्यचरणं पुष्टिमार्गप्रचारकम्। हम पहले ही बता चुके हैं कि पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के प्रवर्तक भगवान श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभु चैतन्यदेव के समकालीन ही थे। इन दोनों महापुरुषों के जीवन में बहुत अधिक साम्य है। दोनों ही भगवान के अनन्य भक्त थे। दोनों ही लोक-शिक्षक आचार्य थे, दोनों ही भक्तिमार्ग के प्रवर्तक थे और दोनों ही अपने-अपने सम्प्रदायों में भगवान के अवतार माने जाते हैं। दोनों ही महाप्रभु कहलाते थे। दोनों का ही जन्म केवल छः वर्ष के आगे-पीछे हुआ। भगवान वल्लभाचार्य महाप्रभु चैतन्यदेव से छः वर्ष पूर्व ही इस अवनि पर अवतरित हुए और दो-ढाई वर्ष पहले इस संसार से तिरोभाव को प्राप्त हुए। दोनों का ही जीवन में त्याग, वैराग्य और प्रेम के भाव पूर्णरीत्या विकसित हुए थे। दोनों ही अपने प्रचण्ड प्रेम के प्रभाव से प्रेमामृतरूपी भक्तिरस से पृथ्वी को परिप्लावित बना दिया। दोनों ही नम्र थे, दोनों ही रसिक थे, दोनों ही गुणग्राही, शान्त, अदोषदर्शी और प्रेमोपासक थे। इन दोनों महापुरुषों का दो बार परस्पर में समागम भी हुआ था। उसका निष्पक्ष विवरण प्राप्त नहीं होता। फिर भी इतना जाना जाता है कि ये एक-दूसरे से अत्यन्त ही स्नेह करते थे और दोनों में बहुत अधिक प्रगाढ़ता रही होगी। क्यों न रहे, जों संसार को अपने प्रेमामृत से अमर बना सकते हैं, ये आपस में संकुचित या विद्वेषपूर्ण भाव रख ही कैसे सकते है? इसलिये प्रसंगवश यहाँ बहुत ही संक्षेप में भगवान वल्लभाचार्य का परिचय करा देना आवश्यक प्रतीत होता है। जिसके जीवन में त्याग, वैराग्य और प्रेमरूपी चैतन्यता है, वही चैतन्य-चरितावली का पात्र है, इसलिये श्रीवल्लभाचार्य का चरित्र यहाँ अप्रासंगिक न होगा और उनके चरित्र से पाठकों को शान्ति तथा आनन्द की ही प्राप्ति होगी। महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म भारद्वाजगोत्रीय तैत्तिरीय शाखा वाले यजुर्वेदीय शुद्ध और कुलीन ब्राह्मण-वंश में हुआ। इनके पूर्वज भट्ट उपाधिधारी दक्षिणी ब्राह्मण थे। उनका कुल बेलनाट नाम से प्रसिद्ध था। इनके पिता का नाम श्रीलक्ष्मण भट्ट और माता का नाम यल्लभागारू था ये लोग आन्ध्र प्रदेश में व्योमस्थम्भ-पर्वत के पास कृष्णा-नदी के दक्षिण तटपर काकरवाड ( काकुम्भकर) नामक नगर में रहते थे। पीछे से इनके पूज्य पिता अग्रहार नामक ग्राममें आकर रहने लगे। श्रीलक्ष्मण भट्ट एक बार सपत्नीक तीर्थयात्रा के निमित्त काशी आये और वहीं हनुमान-घाट के ऊपर एक घर लेकर रहने लगे। उस समय काशी में बड़ी विद्रोह था, इसी कारण भट्ट महोदय अपनी पत्नी के सहित स्वदेश के लिये चले। इनकी पत्नी गर्भवती थी। रास्ते में चम्पारण के समीप चोडा नगर (चतुर्भद्रपुर)- में महाप्रभु का प्रादुर्भाव हुआ। पिता ने चम्पारण से सभी सामग्री लाकर पुत्र को यथोचित जातकर्म आदि संस्कार किये और फिर काशी में ही आकर रहने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो पुष्टिमार्ग के प्रचारक हैं, जिन्होंने अपने को गोपवंश का कहकर प्रकट किया, उन्हीं श्रीवल्लभाचार्य को हम बार-बार प्रणाम करते हैं। प्र. द. व्र.