श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी116. राजपुत्र को प्रेम दान
नीची दृष्टि किये हुए धीरे-धीरे दामोदर पण्डित कहने लगे- ‘आप स्वतन्त्र ईश्वर हैं, जो चाहे सो करें, मुझसे इस विषय में पूछने की क्या बात है। मैं आपको सम्मत्ति ही क्या दे सकता हूँ।’ महाप्रभु ने स्नेह के स्वर में कहा- ‘बाबा ! आपको जो अच्छा लगे वही करें। मैं तो आपके हाथ की कठपुतली हूँ, जैसे नचायेंगे नाचूँगा। आपकी इच्छा के विरुद्ध कर ही क्या सकता हूँ?’ महाप्रभु की इस प्रकार अनुमति पाकर नित्यानन्द जी ने गोविन्द से प्रभु के ओढ़ने का एक बर्हिवास लेकर सार्वभौम भट्टाचार्य के हाथों महाराज के पास पहुँचा दिया। प्रभु के अंग के वस्त्र को पाकर महाराज को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे बड़े ही सम्मान के साथ अपने पास रखने लगे। एक दिन रामानन्द राय ने कहा- ‘प्रभो ! राजपुत्र तो आकर आपके दर्शन कर सकते है?’ प्रभु ने कहा- ‘जैसी आपकी इच्छा, मैं इस सम्बन्ध में आपसे क्या कहूँ, आप स्वतन्त्र हैं जो चाहें सो करें। दोष तो किसी के भी आने में नहीं है, किन्तु अभिमानी के सामने स्वयं भी अभिमान के भाव जाग्रत हो उठते हैं। इसीलिये संन्यासी को राजदरबार में जाना निषेध बताया है। कैसी भी प्रकृति क्यों न हो, मान सम्मान की जगह जाने से कुछ न कुछ तमोगुण आ ही जाता है। बच्चे तो सरल होते हैं, उन्हें मान सम्मान या आदर शिष्टाचार का ध्यान ही नहीं होता। इसीलिये उनसे मिलने में किसी का उद्वेग नहीं होता। यदि राजपुत्र आना चाहे तो उसे आप प्रसन्नतापूर्वक ला सकते हैं।’ |