श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
116. राजपुत्र को प्रेम दान
प्रभु की आज्ञा पाकर रामानन्द जी उसी समय महाराज के निवास स्थान में गये। उस समय महाराज सपरिवार पुरी में ठहर हुए थे। स्नान यात्रा के तीन दिन पूर्व महाराज को पुरी आ जाना पड़ता है और रथयात्रापर्यन्त वे वहाँ रहते हैं, इसीलिये महाराज आये हुए थे।
राय रामानन्द जी की कहीं भी जाने की रोक टोक नहीं थी, वे भीतर चले गये और राजपुत्र से प्रभु के दर्शनों के लिये कहा। राजपुत्र की पहले से ही इच्छा थी। महाराज तथा महारानी की भी आन्तरिक इच्छा थी। इसलिये रामानन्द जी ने राजपुत्र को खूब सजाया। राजपुत्र एक तो वैसे ही बहुत अधिक सुन्दर था। फिर कवि हृदय रामानन्द जी ने अपने हाथों से उसका श्रृंगार किया। राजपुत्र के कमल के समान सुन्दर बड़े बड़े नेत्र थे, माथा चौड़ा था और दोनों भृकुटियाँ कमान के समान चढ़ाव-उतार की थीं। रामानन्द जी ने राजपुत्र के दोनों कानों में मोतियों से युक्त बड़े बड़े कुण्डल पहनाये। गले में मोतियों का हार पहनाया तथा शरीर पर बहुत ही बढ़ियाँ पीले रंग के वस्त्र पहनाये। कामदारी बहुमूल्य पीताम्बर को ओढ़कर राजपुत्र की अपूर्व ही शोभा बन गयी। राय ने राजपुत्र के घुंघराले काले-काले बालों को अपने हाथों से व्यवस्थित करके उनके ऊपर एक छोटा सा मुकुट बाँध दिया। इस प्रकार उसे खूब सजाकर वे अपने साथ प्रभु के दर्शन के लिये ले गये।
महाप्रभु राजपुत्र को देखते ही प्रेम में अधीर हो उठे। उन्हें भान होने लगा, मानो साक्षात श्रीकृष्ण ही उनके समीप आ गये हैं। प्रभु राजपुत्र को देखते ही जल्दी से उठे और श्रीकृष्ण के सखा के भावावेश में उन्होंने जोरों से राजपुत्र का आलिंगन किया। महाप्रभु का प्रेमालिंगन पाते ही राजपुत्र आनन्द में विभोर होकर ‘श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण’ कहकर जोरों से नृत्य करने लगा। उसके सम्पूर्ण शरीर में प्रेम के सभी सात्त्विक भाव एक साथ हो उदित हो उठे। रामानन्द जी ने उसे संभाला। महाप्रभु उससे बहुत देरतक बालकों की भाँति बातें करते रहे। अन्त में फिर आने के लिये बार-बार कहकर प्रभु ने विदा किया। महाराज तथा महारानी ने पुत्र को गोद में बिठाकर स्वयं महाप्रभु के स्नेह का अनुभव किया। उस दिन से राजपुत्र प्राय: प्रभु के दर्शनों के लिये रोज ही आता था। उसकी गणना प्रभु के अन्तरंग भक्त में होने लगी।
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