श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी107. धनी तीर्थराम को प्रेम और वेश्याओं का उद्धार
रे कन्दर्प करं कदर्थयसि किं कोदण्डटगांरितै:। जिसने प्रेमासव का पान कर लिया है, जो उसकी मस्ती में संसार के सभी पदार्थों को भूला हुआ है, उसके सामने ये संसार के सभी सुन्दर, सुखद और चमकीले पदार्थ तुच्छ हैं। वह उन पदार्थों की ओर दृष्टि तक नहीं डालता, जिनके लिये विषयी मनुष्य अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिये तत्पर रहते हैं। जिस हृदय में कामारि के भी पूजनीय प्रभु निवास करते हैं, उस हृदय में काम के लिये स्थान कहाँ? क्या रवि और रजनी एक स्थान पर रह सकते हैं? दीपक लेकर यदि आप अन्धकार को खोजने चलें तो उसका पता कहीं मिल सकता है? इसीलिये कहा है- ‘जहाँ काम है, वहाँ राम नहीं। और जहाँ राम हैं, वहाँ काम नहीं।’ जो जोड़ा से ठिठुरा हो उसके सम्मुख उसकी इच्छा विरुद्ध भी धधकती हुई अग्नि पहुँच जाय तो उद्योग न करने पर भी उसका जाड़ा छूट जायगा। सांभर की झील में कंकड़ी, पत्थर, हड्डी जो भी वस्तु गिर जायगी, वह नमक बन जायगी। प्रेमी से चाहे प्रेम से सम्बन्ध करो या ईर्ष्या-द्वेष से, कल्याण आपका अवश्य ही होगा। भूल से भी लोहा पारस से छुआ दिया जाय तो उसके सुवर्ण होने में कोई सन्देह नहीं। महाप्रभु जब दक्षिण के समस्त तीर्थों में भ्रमण करते करते श्रीरंगम आ रहे थे, तब रास्ते में अक्षयवट नामक तीर्थ में ठहरे। रास्ते में महाप्रभु का जीवननिर्वाह भिक्षा पर ही होता था। किसी दिन भिक्षा मिल जाती थी, किसी दिन नहीं भी मिलती थी, कृष्णदास भट्टाचार्य प्रभु को भिक्षा बनाकर खिलाते थे। एक दिन भिक्षा का कहीं संयोग ही न लगा। तीर्थ में उपोषण का भी विधान है, अत: उस दिन महाप्रभु ने कुछ भी नहीं दिया। एक निर्जन स्थान में शिव जी के समीप वे कीर्तनानन्द में मग्न हुए- कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे।' इस महामन्त्र को जोर जोर से उच्चारण कर रहे थे। रास्ते के श्रम से उनके श्रीमुख पर कुछ श्रीमजन्य थकावट के चिह्न प्रतीत होते थे। उनके समस्त अंगों से एक प्रकार का तेज सा निकल रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ओ कामदेव ! धनुष की टंकारों से तू अपने हाथों को क्यों कष्ट दे रहा है? अरी कोयल ! तू भी अपने कोमल कलनादों से क्यों व्यर्थ कोलाहल मचा रही है? ऐ भोली-भाली रमणी ! तुम्हारे इन स्नेहयुक्त, चतुर, मोहन, मधुर, एवं चंचल कटाक्षों से भी अब कुछ नहीं हो सकता। मेरे चित्त ने तो चन्द्रचूड के चरणों का ध्यानरूपी अमृतपान कर लिया है। भृत. वै. श. 18