श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी65. जगाई और मधाई की प्रपन्नता
वृदांवन में एक परम भगवद्भक्त माताने हमें यह कथा सुनायी थी- भक्त- भयभंजन भगवान द्वारका के भव्य भोजन-भवन में बैठे हुए सत्यभामा आदि भामिनियों से घिरे हुए भोजन कर रहे थे। भगवान एक बहुत ही सुदंर सुवर्ण-चौकी पर विराजमान थे। सुवर्ण के बहुमूल्य थालों में भाँति-भाँति के स्वादिष्ट व्यंजन सजे हुए थे। बहुमूल्य रत्नजड़ित कटोरियों में विविध प्रकार के पेय पदार्थ रखे हुए थे। सामने रुक्मिणी जी बैठी हुई पंखा डुला रही थीं। इधर-उधर अन्य पटरानियां बैठी हुई थीं। सहसा भगवान भोजन करते-करते एकदम रुक गये, उनके मुख का ग्रास मुख में था और हाथ का हाथ में। वे निर्जीव मूर्ति की भाँति ज्यों-के-त्यों ही स्तम्भित रह गये। उनका कमल के समान प्रफुल्लित मुख एकदम कुम्हला गया। आँखों में आंसू भरकर वे रुक्मिणी जी की ओर देखने लगे। सभी पटरानियां भगवान के ऐसे भाव को देखकर भयभीत हो गयीं। वे किसी भावी आशंका के भय से भयभीत-सी हुई प्रभु के मूख की ओर निहारने लगीं। कुछ कम्पित स्वर में भयभीत होकर रुक्मिणी जी ने पूछा- ‘प्रभो! आपकी एक साथ ही ऐसी दशा क्यों हो गयी? मालूम पड़ता है, कहीं आपके परम प्रिय किसी भक्त पर भारी संकट पड़ा है, उसी के कारण आप इतने खिन्न हो गये हैं। क्या मेरा यह अनुमान ठीक है?’ रूक्मिणी की ओर देखते हुए प्रभु ने कहा- ‘तुम्हारा अनुमान असत्य नहीं है।‘ द्रुपदसुता के दु:ख की सुनकर नारी सुलभ भीरूता और कातरता के साथ जल्दी से रुक्मिणी जी ने कहा- ‘तब आप सोच क्या रहे हैं, जल्दी से उसकी सहायता क्यों नहीं करते, जिससे उसकी लाज बच सके। प्रभो! उस दीन-हीन अबला की रक्षा करो। नाथ! उसके दु:ख से मेरा दिल धड़कने लगा है।' गद्गदकण्ठ से भगवान ने कहा- ‘सहायता कैसे करूं? उसने तो अपने वस्त्र का एक छोर दांतों से दाब रखा है। वह सर्वतोभावेन मेरा सहारा न लेकर दांतों का सहारा ले रही है। जब तक वह सब आशाओं को छोड़कर पूर्णरूप से मेरे ही ऊपर निर्भर नहीं हो जाती, तब तक मैं उसकी सहायता कर ही कैसे सकता हूँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान विभीषण के आने पर वानरों से कह रहे हैं- ‘एक बार भी जो प्रपन्न होकर ‘मैं तेरा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे कृपा की याचना करता है, उसे मैं सर्वभूतों से अभय प्रदान करता हूँ, ऐसी मेरी प्रतीज्ञा है।'