श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी38. वही प्रेमोन्माद
विष्णुप्रिया इनकी ऐसी दशा देखकर भयभीत हो जाती हैं और जाकर अपनी सास से सभी बातों को कहती हैं। शचीमाता पुत्र की दशा देखकर दुःख से कातर होकर रुदन करने लगती हैं और सभी देवी-देवताओं की मनौती मानती हैं। वे करुणाभाव से अधीर होकर प्रभु के पादपद्मों में प्रार्थना करती हैं- ‘हे अशरणशरण! इस दीन-हीन कंगालिनी विधवा के एकमात्र पुत्र के ऊपर कृपा करो। दयालो! मैं धन नहीं चाहती, भोग नहीं चाती, सुन्दर वस्त्राभूषण तथा सुस्वादु भोजन की मुझे इच्छा नहीं। मेरा प्यारा, मेरे जीवन का सहारा, मेरी आँखों का तारा यह निमाई स्वचछ और नीरोग बना रहे, यही मेरी प्रार्थना है।’ माता बार-बार निमाई के मुख की ओर देखतीं और उनकी ऐसी दयनीय दशा देखकर अत्यन्त ही दुःखी होतीं। महाप्रभु अब जो भी काम करना चाहते, उसे ही नहीं कर सकते। काम करते-करते उन्हें अपने प्रियतम की याद आ जाती और उसी के विरह में बेहोश होकर गिर पड़ते। ठीक-ठीक भोजन भी नहीं कर सकते। स्नान, सन्ध्या, पूजा का उन्हें कुछ भी होश नहीं, मुख से निरन्तर श्रीकृष्ण के मधुर नामों का ही अपने-आप उच्चारण होता रहता है। किसी की बात का उत्तर भी देते हैं तो उसमें भी भगवान की अलौकिक लीलाओं का ही वर्णन होता है। किसी से बातें भी करते हैं, तो श्रीकृष्ण के ही सम्बन्ध की करते हैं। अर्थात वे श्रीकृष्ण के सिवा कुछ जानते ही नहीं हैं। श्रीकृष्ण ही उनके प्राण हैं, श्रीकृष्ण ही उने धन हैं अर्थात उनके सर्वस्व श्रीकृष्ण ही हैं, उनके लिये संसार में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। |