श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी29. दिग्विजयी का पराभव
महामहिम निमाई पण्डित बृहस्पति के समान निर्भीक होकर धारा-प्रवाह गति से बोलते जाते थे। सभी दर्शकों के चेहरे से प्रसन्नता की किरणें निकल रही थीं। दिग्विजयी लज्जा के कारण सिर नीचा किये हुए चुपचाप बैठे थे। निमाई पण्डित का एक-एक शब्द उने हृदय में शूल की भाँति चुभता था, उससे वे मन-ही-मन व्यथित होते जाते थे, किन्तु बाहर से ऐसी चेष्टा करते थे, जिससे भीतर की व्यथा प्रकट न हो सके, किन्तु चेहरा तो अन्तःकरण का दर्पण है, उस पर तो अन्तःकरण के भावों का प्रतिबिम्ब पड़ता ही है। निमाई पण्डित के चुप हो जाने पर भी दिग्विजयी नीचा सिर किये हुए चुपचाप ही बैठे रहे, उन्होंने अपने मुख से एक भी शब्द इनके प्रतिवाद में नहीं कहा। यह देखकर विद्यार्थी ताली पीटकर हँसने लगे। गुणग्राही निमाई पण्डित ने डाँटकर उन्हें ऐसा करने से निषेध किया। दिग्विजयी को लज्जित और खिन्न देखकर आप नम्रता के साथ कहने लगे- ‘हमने बाल-चापल्य के कारण ये बातें कह दी हैं। आप इनको कुछ बुरा न मानें। हम तो आपके शिष्य तथा पुत्र के समान हैं। अब बहुत रात्रि व्यतीत हो गयी है, आपको भी नित्यकर्म के लिये देर हो रही होगी। हमें भी अपने-अपने घर जाना है। अब आप पधारें। कल फिर दर्शन होंगे। आपके काव्य को सुनकर हम सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। रही गुण-दोष की बात, सो सृष्टि की कोई भी वस्तु दोष से ख़ाली नहीं है। गुण-दोषों के सम्मिश्रण से ही तो इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। कालिदास, भवभूति, जयदेव आदि महाकवियों के काव्यों में भी बहुत-से दोष देखे जाते हैं। यह तो कुछ बात नहीं है, दोष ही न हों, तो फिर गुणों के महत्त्व को कौन समझे? अच्छा तो आज्ञा दीजिये’ यह कहकर सबसे पहले निमाई पण्डित ही उठ बैठे। इनके उठते ही सभी छात्र भी एक साथ ही उठ खडे़ हुए। सर्वस्व गँवाये हुए व्यापारी की भाँति निराशा के भाव से दिग्विजयी भी उठ खडे़ हुए और धीरे-धीरे उदास-मन से अपने डेरे की ओर चले गये। इधर निमाई पण्डित नित्य की भाँति हँसते-खेलते और चौकड़ी लगाते शिष्यों के साथ अपने स्थान को चले गये। |