श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी29. दिग्विजयी का पराभव
यह सुनकर उसी गम्भीर वाणी से निमाई पण्डित कहने लगे- गुणों की भाँति दोष भी इसमें अनेकों निकाले जा सकते हैं, किन्तु पाँच मोटे-मोटे दोष प्रत्यक्ष ही हैं। श्लोक में दो स्थानों पर तो ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दो दोष हैं। तीसरा ‘विरुद्धमति’ दोष है, चैथा ‘भग्नक्रम’ ओर पाँचवाँ ‘पुनरुक्ति’ दोष भी है। इस प्रकार ये पाँच दोष मुख्य हैं, अब इनकी व्याख्या सुनिये। (1) ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष उसे कहते हैं जिसमें ‘अनुवाद’ अर्थात परिज्ञात विषय आगे न लिखा जाय। ऐसा करने से अर्थ में दोष आ जाता है। आपके श्लोक का मूल विधेय है। ‘गगा जी का महत्त्व’ और ‘इदम्’ शब्द अनुवाद है। आपने ‘अनुवाद’ को पहले न कहकर सबसे पहले ‘महत्त्वं गंगायाः’ जो ‘विधेय’ है उसे ही आगे कह दिया, इससे ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष आ गया। (2) दूसरा ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष ‘द्वितीयश्रीलक्ष्मी’ इस पद में है। यहाँ पर ‘द्वितीयत्व’ ही ‘विधेय’ है, द्वितीयशब्द ही समास में पड़ गया। समास में पड़ जाने से वह मुख्य न रहकर गौण पड़ गया। इससे शब्दार्थ क्षय हो गया अर्थात लक्ष्मी की समता प्रकाश करना ही अर्थ का मुख्य तात्पर्य था, सो द्वितीय शब्द के समास में पड़ जाने से अर्थ ही नाश हो गया। (3) तीसरे श्लोक में ‘विरुद्धमति’ दोष है। विरुद्धमति दोष उसे कहते हैं कि कहना तो किसी के लिये चाहते हैं और अर्थ करने पर किसी दूसरे पर घटता है। आपके श्लोक में ‘भवानीभर्तु’ पद आया है, आपका अभिप्राय शंकर जी से है, किन्तु अर्थ लगाने पर महादेव जी का न लगकर किसी दूसरे का ही भास होता है। ‘भवानीभर्ता’ के शब्दार्थ हुए (भवस्य पत्नी भवानी भवान्या भर्ता- भवानीभर्ता) अर्थात शिव जी की पत्नी का पति। इससे पार्वती जी के किसी दूसरे पति का अनुमान किया जा सकता है। जैसे ‘ब्रह्मणपत्नी के स्वामी को दान दो’ इस वाक्य के सुनते ही दूसरे पति का बोध होता है। काव्य में इसे ‘विरुद्धमति’ दोष कहते हैं, यह बड़ा दोष समझा जाता है। (4) चौथा ‘पुनरूक्ति’ दोष है। पुनरूक्ति दोष उसे कहते हैं, एक बात को बार-बार कहना- या क्रिया के समाप्त होने पर फिर से उसी बात को दुहराना। आपके श्लोक में ‘विभवति’ क्रिया देकर विषय को समाप्त कर दिया है, फिर भी क्रिया के अन्त में ‘अद्भुतगुणा’ विशेषण दकर ‘पुनरुक्तिदोष’ कर दिया गया है। (5) पाँचवाँ ‘भग्नक्रम’ दोष है। भग्नक्रम दोष उसे कहते हैं कि दो या तीन पदों में तो कोई क्रम जारी रहे और एक पद में वह क्रम भग्न हो जाये। आपके श्लोक के प्रथम चरण में पाँच ‘तकार’ तीसरे में पाँच ‘रकार’ और चतुर्थ चरण में चार भकारों का अनुप्रास है किन्तु दूसरा चरण अनुप्रासों से रहित ही है। इससे श्लोक में ‘भग्नक्रम’ दोष आ गया।’ |