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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
84. गीतोक्त अन्वय व्यतिरेक वाक्यों का तात्पर्य
4. दूसरे अध्याय के बासठवें-तिरसठवें श्लोकों में भगवान् ने कहा कि जो विषयों का चिंतन करता है, उसका पतन हो जाता है; और छठे अध्याय के चालीसवें श्लोक में कहा कि कल्याणकारी काम करने वाले का पतन नहीं होता। -इसका तात्पर्य है कि जो संसार के सम्मुख हो जाता है, उसका पतन हो जाता है; और जो किसी भी तरह से भगवान के सम्मुख हो जाता है, पारमार्थिक मार्ग में लग जाता है, उसका पतन नहीं होता। 5. दूसरे अध्याय के चौसठवें-पैंसठवें श्लोकों में भगवान् ने कहा कि जिसका मन और इंद्रियाँ वश में होती है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित होती है; और छाछठवें-सड़सठवें श्लोकों में कहा कि जिसका मन और इंद्रियाँ वश में नहीं होती, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती। असंयमी होने के कारण उसका मन उसकी बुद्धि को हर लेता है। इसका तात्पर्य है कि कर्मयोगी के लिए मन और इंद्रियों को वश में रखना बहुत आवश्यक है। 6. तीसरे अध्याय के नवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि यज्ञ के अतिरिक्त कर्म अर्थात् अपने लिए किये गये कर्म बंधनकारक हो जाते हैं- ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यन्त्र लोकोऽयं कर्मबंधनः’ और चौथे अध्याय के तेईसवें श्लोक में कहा कि यज्ञ के लिए अर्थात् दूसरों के हित के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं- 'यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते'। -इसका तात्पर्य है कि मनुष्य को केवल दूसरों के हिते के लिए ही संपूर्ण कर्म करने चाहिए, अपने स्वार्थ के लिए नहीं। 7. तीसरे अध्याय के तेरहवें श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान् ने कहा कि यज्ञ शेष का अनुभव करने वाले सब पापों से मुक्त हो जाते हैं; और उत्तरार्ध में कहा कि जो केवल अपने लिए ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापी पाप ही कमाते हैं। -इसका तात्पर्य है कि मनुष्य को निष्कामभाव से अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। कारण कि निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करने से मुक्ति हो जाती है[1] और सकामभाव पूर्वक कर्तव्य कर्म करने से बंधन हो जाता है[2] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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