विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
84. गीतोक्त अन्वय व्यतिरेक वाक्यों का तात्पर्य
8. तीसरे अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करते हैं, वैसा ही आचरण दूसरे मनुष्य करते हैं; और पचीसवें श्लोक में कहा कि कर्मविधायक शास्त्रों, कर्मों और कर्मफलों पर आस्था रखने वाले आसक्तियुक्त अज्ञानी मनुष्य जैसे तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, वैसे ही आसक्तिरहित होकर विद्वान (ज्ञानी) मनुष्य को भी तत्परतापूर्वक कर्म करने चाहिए। इस प्रकार इक्कीसवें श्लोक में श्रेष्ठ (ज्ञानी) मनुष्य को साधारण मनुष्यों के लिए आदर्श बताया है और पच्चीसवें श्लोक में अज्ञानी मनुष्यों को ज्ञानी मनुष्य के लिए आदर्श बताया है।[1] -इसका तात्पर्य है कि ज्ञानी महापुरुष ‘आदर्श’ रहे अथवा ‘अनुयायी’ बने, उसके द्वारा स्वतः लोकसंग्रह होता है। 9. तीसरे अध्याय के बाईसवें श्लोक में भगवान् तीसरे अध्याय के बाईसवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि मेरे लिए त्रिलोकी में कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी मैं कर्तव्य कर्म करता हूँ; और तेईसवें श्लोक में कहा कि अगर मैं निरालस्य होकर कर्तव्य कर्म न करूँ तो लोग भी कर्तव्य कर्म छोड़कर आलसी हो जायेंगे। -इसका तात्पर्य है कि ज्ञानी महापुरुष के लिए कोई कर्तव्य न होने पर भी उसको लोकसंग्रह के लिए लोकमर्यादा को अटल रखने के लिए कर्तव्य कर्म करने चाहिए; क्योंकि स्वयं भगवान् भी निरालस्य होकर तत्परतापूर्वक लोकसंग्रह के लिए कर्तव्य-कर्म का पालन करते हैं। 10. तीसरे अध्याय के सत्ताईसवें श्लोक में भगवन् ने कहा कि संपूर्ण क्रियाएं प्रकृति के गुणों द्वारा होती है; परंतु मूढ़ मनुष्य अपने को उन क्रियाओं का कर्ता मान लेते हैं; और अट्ठाईसवें श्लोक में कहा कि तत्त्ववेत्ता मनुष्य अपने को उन क्रियाओं का कर्ता नहीं मानता। अतः मूढ़ मनुष्य तो क्रियाओं में आसक्त होकर बँध जाते हैं और तत्त्ववेत्ता मनुष्य क्रियाओं में आसक्त न होकर मुक्त हो जाते हैं। -इसका तात्पर्य है कि ज्ञानयोगी साधक अपने को किसी भी क्रिया का कर्ता न माने। वास्तव में क्रियामात्र प्रकृति में ही है। आत्मा अकर्ता ही है। आत्मा में कर्तापन कभी हुआ नहीं, है नहीं और होना संभव भी नहीं; परंतु जो मनुष्य संसार में मोहित होते हैं, वे आत्मा को कर्ता मान लेते हैं और जो तत्त्व को यथार्थरूप से जानने वाले हैं, वे आत्मा को कर्ता नहीं मानते। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विद्वान् मनुष्य के लिए अज्ञानी मनुष्यों के कर्म करने का प्रकारमात्र आदर्श है, उनका भाव नहीं। इसीलिए विद्वान् मनुष्य के लिए ‘असक्तः’ (आसक्तिरहित) पद आया है।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज