श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी84. राढ़-देश में उन्मत्त-भ्रमण
प्रभु प्रेम में बेसुध होकर कभी तो हंसने लगते थे, कभी तो हंसने लगते थे, कभी रुदन करने लगते थे और कभी-कभी जोरों से ‘हा कृष्ण! ओ प्यारे!! रक्षा करो!!! कहाँ चले गये? मुझे विरह-सागर से उबारो। मैं तुम्हारे लिये व्याकुल हो रहा हूँ।’ इस प्रकार जोरों से चिल्लाकर क्रन्दन करने लगते थे। उनकी वाणी में अत्यधिक करुणा थी। उनके रुदन को सुनकर पाषाण हृदय भी पसीज जाते थे। उन्हें अपने शरीर का कुछ भी होश नहीं था। बिना कुछ सोचे– विचारे अलक्षित पथ की ओर वैसे ही चले जा रहे थे। इस प्रकार भारती जी के पीछे-पीछे उन्होंने राढ़-देश में प्रवेश किया और सायंकाल होने के समय सभी ने एक छोटे से ग्राम में किसी भाग्यशाली कुलीन ब्राह्मण के यहाँ निवास किया। उस अतिथिप्रिय श्रद्धालु ब्राह्मण ने अपने भाग्य की सराहना करते हुए आगत सभी महात्माओं का यथाशक्ति खूब सत्कार किया और उन सभी को श्रद्धा-भक्ति के सहित भिक्षा करायी। भिक्षा करके प्रभु पृथ्वी पर आसन बिछाकर सोये। भारती जी का आसन ऊपर की ओर लगाया गया और गदाधर, मुकुन्द तथा नित्यानन्द जी प्रभु को चारों ओर से घेरकर सोये।दिनभर रास्ता चलने से सब-के-सब पड़ते ही सो गये, किंतु प्रभु की आँखों में नींद कहां? वे तो श्रीकृष्ण के लिये व्याकुल हो रहे थे। सबको गहरी निद्रा में देखकर प्रभु धीरे से उठे। पास में रखे हुए अपने दण्ड-कमण्डलु को उठाया और भक्तों को सोते ही छोड़कर रात्रि में ही पश्चिम दिशा को लक्ष्य करके चलने लगे। वे प्रेम में विभोर होकर- हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। इस महामन्त्र का उच्चारण करते जाते थे। कभी अधीर होकर कातर वाणी से- राम राघव! राम राघव! राम राघव! रक्ष माम्। -इन नामों को लेते हुए जोरों से रुदन करते जाते थे। इधर नित्यानन्द जी की आँखें खुलीं। उन्होंने सम्भ्रव के सहित चारों ओर प्रभु को देखा, किंतु अब प्रभु कहां? वे सर्वस्व हरण हुए व्यापारी की भाँति यह कहते हुए ‘हाय! प्रभो! हम अभागियों को आप सोते हुए छोड़कर कहाँ चले गये?’ जोरों के साथ रुदन करने लगे। नित्यानन्द जी के रुदन को सुनकर सब-के-सब मनुष्य जाग पड़े और एक-दूसरे को दोष देते हुए कहने लगे- ‘हमने पहले ही कहा था कि बारी-बारी से एक-एक आदमी पहरा दो, किंतु किसी ने मानी ही नहीं। कोई अपनी निद्रा को ही धिक्कार देने लगे। इस प्रकार सब भाँति-भाँति से विलाप करने लगे। |