श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी70. भगवत्-भजन में बाधक भाव
इसी प्रकार नवद्वीप में एक देवानंद पण्डित थे। वे वैसे तो बड़े भारी पण्डित थे, शास्त्रों का ज्ञान उन्हें यथावत था। श्रीमद्भागवत के पढ़ाने के लिये दूर-दूर तक इनकी ख्याति थी। बहुत दूर-दूर से विद्यार्थी इनके पास श्रीमद्भागवत और गीता पढ़ने के लिये आते थे। ये स्वभाव के बुरे नहीं थे, संसारी सुखों से उदासीन और विरक्त थे; किंतु अभी तक इनके हृदय में प्रेमका अंकुर उदित नहीं था। हृदय में प्रेम का बीज तो पड़ा हुआ था, किंतु श्रद्धा और साधु-कृपारूपी जल के बिना क्षेत्र शुष्क ही पड़ा था। सुखे खेत में बीज अंकुरित कैसे हो सकता है, जब तक कि वह सुंदर वारि से सींचा न जाय? दयार्द्र-हृदय गौरांग ने एक दिन नगर-भ्रमण करते समय उनके ऊपर भी कृपा की। उनके ऊपर उसे वाक्-प्रहार कारके उनके सुखे और जमे हुए हृदयरूपी क्षेत्र को पहले तो जोत दिया, फिर कृपारुपी जल से सींचकर उसे स्निग्ध और उत्पन्न होने योग्य बना दिया। देवानंद को श्रीमद्भागवत पढ़ाते देखकर प्रभु क्रोधित भाव से कहने लगे- ‘ओ पण्डित! श्रीमद्भागवत के अर्थों का अनर्थ क्यों किया करता है? तू भागवत के अर्थों को क्या जाने? श्रीमद्भागवत तो साक्षात श्रीकृष्ण का विग्रह ही है। जिनके हृदय में प्रेम नहीं, भक्ति नहीं, साधु-महात्मा और ब्राह्मण-वैष्णवों के प्रति श्रद्धा नहीं, वह श्रीमद्भागवत की पुस्तक के छूने का अधिकारी ही नहीं। भागवत, गंगा जी, तुलसी और भगवद्भक्त- ये भगवान के रूप ही है। जो शुष्क हृदय के हैं, जिनके अन्त:करण में भक्ति नहीं, वे इनके द्वारा क्या लाभ उठा सकते हैं। वैसे ही ज्ञान की बातें बघारता रहता है या कुछ समझता भी है? ऐसे पढ़ने से क्या लाभ। ला, तेरी पुस्तक को फाड़कर श्रीगंगा जी के प्रवाह में प्रवाहित कर दूं।’ इतना कहकर प्रभु भावावेश में उनकी पुस्तक फाड़ने के लिये दौड़े। भक्तों ने यह देखकर प्रभु को पकड़ लिया और शांत किया। प्रभु को भावावेश में देखकर भक्त उन्हें आगे ले गये। लौटते हुए प्रभु फिर देवानंद के स्थान पर आये। उस समय प्रभु भावावेश में नहीं थे, उन्होंने देवानंद जी को वह बात याद दिलायी, जब वे एक बार श्रीमद्भागवत पाठ पढ़ा रहे थे और श्रीवास पण्डित भी पाठ सुनने आये थे। जिस श्रीमद्भागवत के अक्षर-अक्षर में ठूँस-ठूँसकर प्रेम रस भरा हुआ है, ऐसी भागवत का जब श्रीवास जी ने पाठ सुना तो वे प्रेम में बेहोश होकर मूर्च्छित हो गये, आपके भक्तो ने उन्हें उठाकर बाहर डाल दिया था और आपने इसमें कुछ भी आपत्ति नहीं की। महाभागवत श्रीवास पण्डित के भावों को जब आपने ही नहीं समझा तब आपके शिष्य तो समझते ही क्या? आपने उस समय एक भगवद्भक्त का बुरी तरह से तिरस्कार कराया, यह आपके ऊपर अपराध चढ़ा। |