श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी70. भगवत्-भजन में बाधक भाव
श्रीवास पण्डित ने अत्यंत दीन-भाव से कहा- ‘प्रभो! भला यह भी कभी हो सकता है कि जिस माता ने आपको गर्भ में धारण किया है, उसका अपराध ही क्षमा न हो सके। आपको गर्भ में धारण करने से तो ये जगज्जननी बन गयीं। इनके लिये क्या अपना और क्या पराया? सभी तो इनके पुत्र हैं। जिसे चाहें जो कुछ ये कह सकती हैं।’ प्रभु ने कहा- ‘कुछ भी हो, वैष्णवों का अपराध करने वाला चाहे कोई भी हो उसकी निष्कृति नहीं हो सकती। साक्षात देवाधिदेव महादेव जी भी वैष्णवों का अपराध करने पर तत्क्षण ही नष्ट हो सकते हैं।’ श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो! कुछ भी तो इनके अपराध-विमोचन का उपाय होना चाहिये।’ प्रभु ने कहा- ‘शचीमाता का अपराध अद्वैताचार्य के प्रति है। यदि आचार्य की चरण-धूलि माता सिर पर चढ़ावें और आचार्य ही इसे हृदय से क्षमा कर दें तब यह कृपा की अधिकारिणी बन सकती हैं।’ उस समय आचार्य दूसरे स्थान में थे, सभी भक्त आचार्य के समीप गये और वहाँ जाकर उन्होंने सभी वृत्तांत कहा। प्रभु की बातें सुनकर आचार्य प्रेम में विभोर होकर अश्रु-विमोचन करने लगे। वे रोते-रोते कहने लगे- ‘यही तो प्रभु की भक्तवत्सलता है। भला भगन्माता शचीदेवी का अपराध हो ही क्या सकता है? यह तो प्रभु हम लोगों को शिक्षा देने के लिये इस लीला का अभिनय करा रहे हैं, तो मैं हृदय से कहता हूँ, माता के प्रति मेरे मन में किसी प्रकार का बुरा भाव नहीं है। यदि आप मुझे प्रभु की आज्ञा से ‘क्षमा कर दी’ ऐसा कहने के लिये ही विवश करते हैं तो मैं कहे देता हूँ। वैसे तो माता ने मेरा कोई अपराध किया ही नहीं हैं। यदि प्रभु की दृष्टि में यह अपराध है तो मैं उसे हृदय से क्षमा करता हूँ। रही चरण-धूलि की बात सो शचीमाता तो जगद्वन्द्य हैं। उनकी चरण-धूलि ही भक्तों के शरीर का अंगराग है। भला, माता को मैं अपने पैर कैसे छुआ सकता हूँ।’ |