श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी70. भगवत्-भजन में बाधक भाव
अब जब निमाई भी आचार्य के संसर्ग में अधिक रहने लगे और आचार्य ही सबसे अधिक भगवद्भाव से इनकी पूजा-स्तुति करने लगे, तो बेचारी दु:खिनी माता से अब नहीं रहा गया। कहावत है- ‘दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंककर पीता है।’ माता का हृदय पहले से ही घायल बना हुआ था। विश्वरूप उसके हृदय में पहले ही एक बड़ा भारी घाव कर गये थे, वह अभी पूरने भी नहीं पाया था कि निमाई भी उसी के पथ का अनुसरण करते हुए दिखायी देने लगे। निमाई अब भक्तों को छोड़कर एक क्षण भर के लिये भी संसारी कामों को करना पसंद नहीं करते। वे विष्णुप्रिया जी से अब बातें ही नहीं करते हैं, सदा भक्तमण्डल में बैठे हुए श्रीकृष्ण-कथा ही कहते-सुनते रहते हैं, नाती का मुख देखने के लिये उतावली बैठी हुई माता को अपने पुत्र का बर्ताव रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। इसके मूल में भी आचार्य अद्वैत का ही हाथ दीखने लगा। माता अब अपने मनोगत भावों को अधिक न छिपा सकीं। उनकी मनोव्यथा लोगों से बातें करते-करते आप-से-आप ही हृदय को फोड़कर बाहर निकल पड़ती। वे आंसू बहाते-बहाते अधीर होकर कहने लगतीं- ‘इन वृद्ध आचार्य को मुझ दु:खिनी विधवा के ऊपर दया भी नहीं आती। मेरे एक पुत्र को तो इन्होंने संन्यासी बना दिया। मेरे पति मुझे बीच में ही धोख देकर सदा के लिये चल बसे। मुझ बिलखती हूई दु:खिनी के ऊपर उन्हें तनिक भी दया नहीं आयी। अब मेरे जीवन का सहारा, मुझ अंधी की एकमात्र आधार लकड़ी यह निमाई ही है। इसे छोड़कर मेरे लिये सभी संसार सूना-ही-सूना है। मेरे आगे-पीछे बस यही एक आश्रय है, इसे भी आचार्य संन्यासी बनाना चाहते हैं। सदा इसे लेकर कीर्तन ही करते रहते हैं। मेरा निमाई कितना सीधा है। अद्वैताचार्य ने उनके साथी भक्तों ने उसे ईश्वर बता-बताकर विरक्त बना दिया है, वह घर की ओर कुछ ध्यान ही नहीं देता। सदा भक्तों के ही साथ घूमा करता है।’ माता की इन बातों से श्रीवास आदि भक्तों को तथा अद्वैताचार्य जी को मन-ही-मन कुछ दु:ख होता था। प्रभु भी भक्तों के मनोभावों को ताड़ गये। भक्तों को शिक्षा देने के निमित्त प्रभु ने माता के ऊपर कुछ क्रोध प्रकट करते हुए उस वैष्णव-निंदारूपी पाप का प्रायश्चित्त कराया। एक दिन प्रभु भगवदावेश में भगवन्मूर्तियों को एक ओर हटाकर भगवान के सिंहासन पर आरूढ़ हुए और उपस्थित सभी भक्तों से वरदान मांगने के लिये कहा। भक्तों ने अपने-अपने इच्छानुसार किसी ने अपने पिता की दुष्टता छुड़ाने का, किसी के स्त्री की बुद्धि शुद्ध हो जाने का, किसी ने पुत्र का और किसी ने भगवद्भक्ति का वर मांगा। प्रभु ने आवेश में ही आकर सभी को उन-उनका अभीष्ट वरदान दिया। उसी समय श्रीवास पण्डित ने अति दीन-भाव से कहा- ‘प्रभो! ये शचीमाता यदा दु:खिनी ही बनी रहती है। ये दु:ख के कारण सदा अश्रु ही बहाती रहती हैं। भगवन! इनके उपर भी ऐसी कृपा होनी चाहिये कि इनका शोक-सन्ताप सब दूर हो जाय।‘ |