श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी50. अद्वैताचार्य के ऊपर कृपा
शान्तिपुर में पहुँचने पर रमाई पण्डित आचार्य के घर गये। उस समय आचार्य अपने घर के सामने बैठे हुए थे, दूर से ही श्रीवास पण्डित के अनुज को आते देखकर वे गद्गद हो उठे, उनकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। आचार्य समझ गये कि ‘अब हमारे शुभ दिन आ गये। कृपा करके प्रभु ने हमें स्वयं बुलाने के लिये रमाई पण्डित को भेजा है, भगवान भक्त की प्रतिज्ञा की इतनी अधिक परवा करते हैं कि उसके सामने वे अपना सब ऐश्वर्य भूल जाते हैं।’ इसी बीच रमाई ने आकर आचार्य को प्रणाम किया। आचार्य ने भी उनका प्रेमालिंगन किया। आचार्य से प्रेमालिंगन पाकर रमाई पण्डित एक ओर खड़े हो गये और आचार्य की ओर देखकर कुछ मुसकराने लगे। उन्हें मुसकराते देखकर आचार्य कहने लगे- ‘मालूम होता है, प्रभु ने मुझे स्मरण किया है, किंतु मुझे कैसे पता चले कि यथार्थ में वे ही मेरे प्रभु हैं? जिन प्रभु को पृथ्वी पर संकीर्तन का प्रचार करने के निमित्त मैं प्रकट करना चाहता था, वे मेरे आराध्यदेव प्रभु ये ही हैं, इसका तुम लोगों के पास कुछ प्रमाण है?’ कुछ मुसकराते हुए रमाई पण्डित ने कहा- ‘आचार्य महाशय! हम लोग तो उतने पण्डित तो नहीं हैं। प्रमाण और हेतु तो आप-जैसे विद्वान ही समझ सकते हैं। किंतु हम इतना अवश्य समझते हैं कि प्रभु बार-बार आपका स्मरण करते हुए कहते हैं- ‘अद्वैताचार्य ने ही हमें बुलाया है, उसी के हुंकार के वशीभूत होकर हम भूतल पर आये हैं। लोकोद्धार की सबसे अधिक चिन्ता अद्वैताचार्य को ही थी, इसीलिये उसकी चिन्ता को दूर करने के निमित्त श्रीकृष्ण-संकीर्तन द्वारा लोकोद्धार करने के निमित्त ही हम अवतीर्ण हुए हैं।’ अद्वैताचार्य मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे, प्रभु की दयालुता, भक्तवत्सलता और कृपालुता का स्मरण करके उनका हृदय द्रवीभूत हो रहा था, प्रेम के कारण उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया। इच्छा करने पर भी वे कोई बात मुख से नहीं कह सकते थे, प्रेम में गद्गद होकर वे रुदन करने लगे। पास में ही बैठी हुई उनकी धर्मपत्नी सीता देवी भी आचार्य की ऐसी दशा देखकर प्रेम के कारण अश्रु बहाने लगी। |