विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
परिशिष्ट
अन्धक वृष्णि गणराज्य के प्रधान
महाभारत में हमें कृष्ण का परिचय एक विशिष्ट रूप में मिलता है। यादव क्षत्रियों की दो प्रधान शाखाएं अन्धक और वृष्णिसंज्ञक थीं। कृष्ण वृष्णि वंश के थे। अक्रूर अन्धक थे। वृष्णि गणराज्य की ऐतिहासिक सत्ता का प्रमाण एक प्राचीन सिक्के से प्राप्त होता है, जिस पर ‘वृष्णिराजन्यगणस्य त्रातारस्य’ इस प्रकार का लेख है। इससे ज्ञात होता है कि विक्रम संवत् के प्रारम्भ तक वृष्णि लोगों का शासन एक गण या संघ के रूप में था। पाणिनि की अष्टाध्यायी और बौद्ध साहित्य में भी अन्धक वृष्णियों का उल्लेख है। महाभारत सभापर्व [1] से मालूम होता है कि अन्धक और वृष्णियों का एक सम्मिलित संघराज्य था। इसे श्रीयुत् जयसवाल ने उनकी ‘फेडरल पार्लामेंट’ के नाम से पुकारा है। इस सम्मिलित संघ में वृष्णियों की ओर से कृष्ण और अन्धकों की ओर से बभ्रु उग्रसेन संघ प्रधान चुने गये थे। इसीलिए महाभारत की राजनीतिक परिभाषा में कृष्ण को ऐश्वर्य का अर्द्धभोक्ता राजन्य कहा गया है। संघसभा में राजनीति के चक्र भी चलते रहते थे। वृष्णियों की ओर से संघसभा में आहुक और अन्धकों की ओर से अक्रूर सदस्यों का नेतृत्व करते थे। कभी-कभी दोनों पक्षों से बहुत उग्र भाषण दिये जाते थे। पारस्परिक कलह से खिन्न होकर एक बार कृष्ण भीष्म से परामर्श करने हस्तिनापुर पधारे थे। तब भीष्म ने उनसे यही कहा, “हे कृष्ण, मधुरवचन रूपी एक ‘अनायस’ शस्त्र है, तुम उसी के प्रयोग से जातियों को वश में करो। सम भूमि पर सब चल सकते हैं, पर विषम भूमि पर बोझा ढोना आसान नहीं। हे कृष्ण, तुम्हारे जैसे प्रधान को पाकर यह गणराज्य नष्ट न होना चाहिए।’ हम जानते हैं कि कृष्ण के प्रयत्न करने पर भी अन्त में तीक्ष्ण भाषण के कारण ही यादवों का आपस में लड़कर विनाश हो गया। सोलह कला का अवतारकृष्ण को हमारे देश के जीवन-चरित्र-लेखकों ने ‘सोलह कला का अवतार’ कहा है। इसका तात्पर्य क्या है? यह स्पष्ट है कि भिन्न-भिन्न वस्तुओं को नापने के लिए भिन्न-भिन्न परिमाणों का प्रयोग किया जाता है। दूरी नापने के लिए और नाप है, काल के लिए और है, तथा बोझे क लिए और है। इसी प्रकार मानवीय पूर्णता को प्रकट करने के लिए कला ही नाप है। सोलह कलाओं से चन्द्रमा का स्वरूप सम्पूर्ण होता है। मानवी आत्मा का पूर्णतम विकास भी सोलहों कलाओं के द्वारा प्रकट किया जाता है। कृष्ण में सोलह कला की अभिव्यक्ति थी, अर्थात मनुष्य का मस्तिष्क मानवी विकास का जो पूर्णतम आदर्श बन सकता है, वह हमें कृष्ण में मिलता है। नृत्य, गीत, वादित्र, सौन्दर्य, वाग्मिता, राजनीति, योग, अध्यात्म, ज्ञान सबका एकत्र समन्वय कृष्ण में पाया जाता है। गोदोहन से लेकर राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोने तक तथा सुदामा की मैत्री से लेकर युद्धभूमि में गीता के उपदेश तक उनकी ऊँचाई का एक पैमाना है, जिस पर सूर्य की किरणो को रंग-बिरंगी पेटी (स्पैक्ट्रम) की तरह हमें आत्मिक विकास के हर एक स्वरूप का दर्शन होता है। कृष्ण के उच्च स्वरूप की पराकाष्ठा हमारे लिए गीता में है। सब उपनिषद् यदि गौएं हैं, तो गीता उनका दूध है। इस देश के विद्वान किसी ग्रन्थ की प्रशंसा में इससे अधिक और क्या कह सकते थे? गीता विश्व का शास्त्र है, उसका प्रभाव मानव जाति के मस्तिष्क पर हमेशा तक रहेगा। संसार में जन्म लेकर हममें से हरेक के सामने कर्म का गम्भीर प्रश्न बना ही रहता है। जीवन कर्ममय है, संसार कर्मभूमि है। गीता उसी कर्मयोग का प्रतिपादक शास्त्र है। कर्म का जीवन के साथ क्या सम्बन्ध है और किस प्रकार उस सम्बन्ध का निपटारा करने से मनुष्य अपने अन्तिम ध्येय और शान्ति को प्राप्त कर सकता है, इन प्रश्नों की सर्वोत्तम मीमांसा काव्य के ढंग से गीताकार ने की है। अत: यह ग्रन्थ ने केवल भारतवर्ष बल्कि विश्व साहित्य की वस्तु है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (अ. 81)
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज