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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
परिशिष्ट
राजनीतिक चरित्र
इन्हीं दोनों घरानों ने मिलकर उसका अन्त किया। चेदि जनपद में शिशुपाल का एकछत्र शासन था। शिशुपाल दुर्योधन की राजनीति का समर्थक था। दुर्योधन की शक्ति को निर्बल बनाने के लिए जरासन्ध और शिशुपाल का वध करके माहिष्मती की गद्दी पर उसके पुत्र धृष्टकेतु को बैठाया। नग्नजित् के पुत्रों को हराकर गन्धार देश को अनुकूल किया। बलिष्ठ पांड्यराज को मल्लयुद्ध में अपने वक्षःस्थल की टक्कर से चूर कर डाला। सौभनगर में शाल्वराज को वशीभूत किया। सुदूरपर्व के प्राग्योतिष दुर्ग में भौम नरक का निरंकुश शासन था, जिसने एक सहस्र कन्याओं को अपने बन्दीगृह में डाल रखा था। उसकी निर्मोचन नामक राजधानी में सेना सहित मुर और नरक का वध करके कामरूप प्रदेश को स्वतंत्र किया। बाणासुर, कलिंगराज और काशिराज इन सबको कृष्ण से लोहा लेना पड़ा और सभी उनके बुद्धि कौशल के आगे परास्त हुए। कृष्ण की राजनीतिक बुद्धि अद्भुत थी। अर्जुन ने कहा था कि युद्ध न करने पर भी कृष्ण मन से जिसका अभिनन्दन करें वह सब शत्रुओं पर विजयी होगा। ‘युदि मुझे वज्रधारी इन्द्र और कृष्ण में से एक को चुनना पड़े, तो मैं कृष्ण को लूंगा।’ आर्य विष्णुगुप्त चाणक्य को भी अपनी बुद्धि पर ऐसा ही विश्वास था। कृष्ण का मन्त्र अमोघ था। जहाँ कोई युक्ति न हो, वहाँ कृष्ण की युक्ति काम आती थी। धृतराष्ट्र की धारणा थी कि जब तक रथ पर कृष्ण, अर्जुन और अधिज्य गांडीव धनुष, ये तीन तेज एक साथ हैं, तब तक ग्यारह अक्षौहिणी भारती सेना होने पर भी कौरवों की विजय असम्भव है। महाभारत का युद्ध भारतीय इतिहास की एक अति दारुण घटना है। इस प्रलयकारी युद्ध में दुर्योधन की ओर से गन्धार, बाल्हीक, कम्बोज, केकय, सिन्धु, मद्र, त्रिगर्त (कांगड़ा), सारस्वतगण, मालव, और अंग आदि देशों के क्षत्रिय प्रवृत्त हुए। युधिष्ठिर की ओर से विराट, पंचाल, काशि, चेदि, सृंजय, वृष्णि, आदि वंशों के क्षत्रिय युद्ध के लिए आये। ऐसे भयंकर विनाश को रोकने के लिए कृष्ण से जो प्रयत्न हो सकता था, उन्होंने किया। वे पाण्डवों की ओर से समस्त अधिकार लेकर सन्धि के लिए हस्तिनापुर गये।[1] वहाँ उन्होंने धृतराष्ट्र की सभा में जो तेजस्वी भाषण दिया, उसकी प्रतिध्वनि आज भी इतिहास में गुंजायमान हैः कुरुणां पाण्डवानां च शमः स्यादिति भारत। अर्थात् कौरवों और पाण्डवों में वीरों का नाश हुए बिना ही शान्ति हो जाय, मैं यही प्रार्थना करने आया हूँ। धृतराष्ट्र ने कहा, “हे कृष्ण, मैं सब समझता हूं, पर तुम दुर्योधन को समझा सको तो प्रयत्न करो।” कृष्ण ने दुर्योधन से कहा, “हे तात, शान्ति से ही तुम्हारा और जगत् का कल्याण होगा।”-शमे शर्म भवत्तात।[2] दुर्योधन ने सब कुछ सुनकर कहाः यावद्धि तीक्ष्णया सूच्या विद्धयेदग्रेण केशव, अर्थात ‘हे कृष्ण, सुई के नोक के बराबर की भूमि पाण्डवों के लिए मैं नहीं छोड़ सकता।’ बस यही युद्ध का अपरिहार्य आह्वान था। दैव की इच्छा के सामने भीष्म और द्रोण जैसे नररत्नों की भी रक्षा न हो सकी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय राजनीति की परिभाषा के अनुसार दूत तीन तरह के होते हैं, एक ‘विस्रष्टार्थ’ जो देशकाल की आवश्यकता के अनुसार अपने उत्तरदायित्व पर राजकार्य को बनाने का सब अधिकार रखते हैं; दूसरे ‘संदिष्टार्थ’ जो संदेश या उक्त वचन को ले जाकर कहते हैं; और तीसरे ‘शासनहर’ जो लिखित पत्र या ‘शासन’ ले जाते हैं। पाण्डवों ने कृष्ण को प्रथम कोटि का अर्थात् विस्रष्टार्थ दूत बनाकर भेजा था, जिन्हें उनकी तरफ से अपने ही उत्तरदायित्व पर चाहे जिस प्रकार की सन्धि या निर्णय करने के सब अधिकार प्राप्त थे।
- ↑ उद्योग पर्व 124, 19
- ↑ (उद्योग. 127, 25)
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