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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 57
राजा वसु के पांच महाबलशाली पुत्र हुए, जिन्होंने पांच देश और नगर बसाये। वसु के राज्य में कोलाहल नामक पर्वत से निकलकर शुक्तिमती (वर्तमान केन) नदी बहती थी। राजा वसु से ही सत्यवती नाम की एक कन्या यमुना-प्रदेश में उत्पन्न हुई, जिसका नाम मत्स्यगन्धा भी था। राजा ने प्रति-पालन के लिए उस कन्या को यमुना-तीरवासी धीवर राज को सौंप दिया। जब वह रूप-यौवन संपन्न हुई तब नाव चलाते समय उसके घाट पर तीर्थयात्रा के लिए निकले हुए पराशर ऋषि आ पहुँचे और उस पर मोहित हो गए। ऋषि के संसर्ग से सत्यवती ने गर्भ धारण किया और यमुना के बीच में स्थित द्वीप में पराशर के पुत्र द्वैपायन व्यास को जन्म दिया। काला वर्ण होने के कारण उनका जन्म नाम कृष्ण था। इस प्रकार महाभारत के काल में दो कृष्ण थे। एक देवकी पुत्र वार्ष्णेय वासुदेव कृष्ण और दूसरे सत्यवती पुत्र द्वैपायन पाराशर्य कृष्ण, जिन्होंने आगे चलकर वेद की संहिताओं का विभाग किया और जो वेदव्यास नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्हीं कृष्ण से निर्मित होने के कारण महाभारत को ‘कार्ष्ण वेद’ भी कहा गया है। भारतीय साहित्य के इतिहास में वेदव्यास ने सचमुच अद्भुत कार्य किया। वेद और लोक की जितनी कविता उस समय तक विरचित हुई थी, उन सबके संग्रह का श्रेय व्यास को है। उन्होंने अपने उस संग्रह या संहिता को पांच शिष्यों को पढ़ाया। पैल को ऋग्वेद, जैमिनि को सामवेद, वैशम्पायन को यजुर्वेद, सुमन्तु को अथर्ववेद, और इन चारों से अतिरिक्त जो पांचवां वेद महाभारत था, उसे अपने पुत्र शुकदेव को पढ़ाया। इनमें से प्रत्येक ने इस प्रकार प्राप्त उस साहित्य के उत्तरदायित्त्व को पूरा करने के लिए अपने विषय की पृथक-पृथक संहिताएं बनाईं। उन्हीं पांच मूल संहिताओं से चारों वेद और पांचवां इतिहास-पुराण प्राचीन भारतीय वाङ्मय में और लोक में वृद्धि और प्रचार को प्राप्त हुआ। अपरिमित लोक साहित्य और ऋषि परिवारों में प्रणीत विशाल वैदिक साहित्य के संरक्षण और पारस्परिक समन्वय का श्रेय द्वैपायन वेदव्यास को है। भारतीय वाङ्मय के सुदीर्घ इतिहास में लोक-संस्कृति और वेद-संस्कृति के समन्वय का जैसा विलक्षण कार्य व्यास ने किया, वह अनुपम, अपरिमित और महाफल देने वाला हुआ। अंशावतरण पर्व के शेष भाग में कुरु-पाण्डव वीरों के और उनके समकालीन अनेक राजाओं के जन्मों का उल्लेख है। इस सारे प्रकरण की कल्पना अवतारवाद के सिद्धांत को मान कर हुई है। कौन किसका अवतार है, यही इस वर्णन में ढूंढ-ढूंढ़कर बताया गया है। यह प्रकरण पंचरात्रों द्वारा अवतारवाद की कल्पना परिपक्व होने पर जोड़ा गया प्रतीत होता है। इसी में वह प्रसंग भी मिलता है, जिसमें पाप के भार से आर्त्त पृथ्वी वैकुण्ठ में नारायण के पास जाकर प्रार्थना करती है कि वह अवतार लें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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