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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 57
इस प्रकार प्रसन्न होकर इन्द्र ने उपरिचर राजा को एक तीसरी वस्तु और दी, जिसे वैणवी यष्टि या इन्द्रध्वज कहा गया है। राजा वसु ने उस इन्द्र-यष्टि को एक वर्ष बीतने पर विधि-विधान से पृथ्वी पर सीधा खड़ा कर दिया और तब से आज तक प्रत्येक जनपद में प्रति वर्ष उस इन्द्र-यष्टि का पूजन किया जाता है। पहले दिन संध्या को जंगल में जाकर एक महावृक्ष चुन लेते हैं और उसमें से काटकर बत्तीस हाथ या अड़तालीस फुट लम्बी यष्टि तैयार करते हैं। अगले दिन वह ऊंची लाट अनेक भाँति से अलंकृत और गंधमालाओं से विभूषित करके पृथ्वी पर सीधी खड़ी की जाती है और समस्त जनपद महोत्सव मनाता है, जिसे कुरु जनपद (मेरठ जिले) में आज तक ‘इंदर का जग्य’ कहा जाता है। यह इन्द्र-यष्टि क्या है?
यह इन्द्र-यष्टि भगवान शंकर के हास्य का रूप है। समस्त जनपद के जीवन का जो मग्नानन्दी पक्ष है, उसका प्रतीक यह इन्द्र-यष्टि थी। आवाल-वृद्ध-वनिता सब हंसमुख जीवन व्यतीत करते हुए नृत्य, गीत, आमोद-प्रमोद और उत्सव की प्रवृत्ति से फूलते-फलते जनपदीय जीवन का जो रूप प्रस्तुत करते हैं, उसका सर्वोत्तम चिह्न इन्द्र-ध्वज या इन्द्र-यष्टि पूजन था। इस उत्सव को ‘इन्द्रमह’ भी कहते थे। यह आर्य जाति का अत्यन्त प्राचीन महोत्सव था। प्राचीन लोकवार्त्ता-शास्त्र के विद्वान यूरोप में ‘मेपोल’ नामक उत्सव को इसी इंद्र-यष्टि पूजन का प्रतिरूप मानते हैं। उसमें और भारतीय इन्द्रमह में विशेष साम्य है। वृक्ष-मह, यक्ष-मह, नदी-मह, गिरी-मह, इन्द्र-मह, धनुष-मह, ये भिन्न-भिन्न प्रकार के उत्सव प्राचीन काल में प्रचलित थे। मथुरा में कृष्ण के गोवर्धन-धारण की जो कथा है, उसके मूल में यही बात है कि इन्द्रमह-उत्सव का निराकरण करके गिरिमह नामक उत्सव का कृष्ण ने व्रज में विधान किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदि. 57।11
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