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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 23
यहाँ हम पाठकों का ध्यान उस पुष्पिका की ओर दिलाना चाहते हैं, जो गीता के प्रत्येक अध्याय के अंत में पाई जाती है। वह इस प्रकार हैः ओम तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषाद योगो नाम प्रथमोध्यायः ।।1।। इसमें अठारह अध्यायों के नाम क्रम से बदल जाते हैं और शेष पुष्पिक वही रहती है। उसी की ओर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। इस पुष्पिक का पहला अंश ओम् तत्सत् है। यह सारी भारतीय संस्कृति का मूल सूत्र है। इसका सीधा-सच्चा अर्थ है- ईश्वर अर्थात ब्रह्म या भगवत्तत्त्व की ध्रुव सत्ता। इसीलिए गीता के न्यास में ऋषि, छन्द, देवता की व्याख्या करते हुए कहा है, “श्रीकृष्णः परमात्मा देवता। ओम् तत्सत् की ही व्याख्या यह है, अर्थात इस महान शास्त्र का देवता या चिन्मय तत्त्व परमात्मा या ईश्वर है, वही गीता का प्राण, श्वास-प्रश्वास या जीवन है। ईश्वर के लिए ही ओम, तत् और सत् ये तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं। ईश्वर है, वह तत् या अव्यक्त है एवं वह सत्य है, यही ईश्वर के विषय में भारतीय दर्शन की मान्यता है। यह सारा विश्व और जीवन भौतिक है। यदि ईश्वर में श्रद्धा हो तभी विश्व और जीवन सार्थक है। और कोई संस्कृति चाहे जिस ढंग से सोचती हो, भारतीय संस्कृति का मूलाधार सत् तत्त्व ही है। यह विश्व भूत भौतिक सत् रूप है। इसके भीतर देव की सत्ता अनुप्रविष्ट है, जिसके कारण विश्व और जीवन स्थायी मूल प्राप्त करते हैं। गीता सत् तत्त्व का प्रतिपादक शास्त्र है। यदि विश्व को असत् कहें तो जीवन की कोई समस्या ही नहीं है। एक ओर ब्रह्म है, पर उसके लिए न कोई समस्या पहले थी, न आज है, न होगी। दूसरी ओर जड़ जगत् है। उसकी भी कोई समस्या नहीं। मृत्यु के साथ सब समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। जितनी समस्याएं हैं, वे अर्जुन रूपी नर के लिए हैं। ईश्वर और विश्व के बीच की और दोनों को जोड़ने वाली कड़ी नर है। भारतीय दृष्टि से ये दो सूत्र स्मरण रखने योग्य हैः (1) ब्रह्म = ईश्वर = नारायण = कृष्ण = भगवान जीव की समस्याएं दो प्रकार की हैं- एक भगवान के साथ, दूसरी विश्व के साथ। नर और नारायण या मनुष्य और भगवान के बीच की समस्याओं के समाधान का उपाय ज्ञान है और मनुष्य और विश्व की जितनी समस्याएं हैं उनके समाधान का साधन कर्म है। दोनों ही मनुष्य के लिए आवश्यक हैं, और दोनों के समाधान से ही मनुष्य का मन शान्ति या समन्वय प्राप्त करता है। यहाँ हम प्राचीन भारतीय शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं, क्योंकि वह स्पष्ट और सुनिश्चित है और उसके पीछे एक महान संस्कृति की अभिव्यंजना-शक्ति है। हम चाहें तो ईश्वर के स्थान पर सत्य, न्याय, विश्व धर्म, आदि नए शब्दों का भी प्रयोग कर सकते हैं, किन्तु मूल बात में कोई अन्तर नहीं पड़ता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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