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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 23
ज्ञान और कर्म इन दोनों के लिए ही गीता की पुष्पिका में दो महत्त्वपूर्ण शब्द आये हैं- ‘ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे’। एक ओर ब्रह्म विद्या या अध्यात्म ज्ञान मानव के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं, दूसरी ओर योग शास्त्र अर्थात कर्म योग भी उतना ही आवश्यक है। गीता ज्ञान रूपी समाधान की दृष्टि से ब्रह्म विद्या है, वही कर्मरूपी समाधान की दृष्टि से योग शास्त्र है। गीता में योग की दो परिभाषाएं हैं, एक ज्ञान योग या बुद्धि योग है, दूसरा कर्म योग या केवल ‘योग’ है। गीताकार ने दोनों की अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं। ज्ञान योग को समत्व योग कहा है।[1] कमी की दृष्टि से कर्मों में कौशल या प्रवीण युक्ति को योग कहा है।[2] ये दोनों भले ही अलग जान पड़ें, पर गीता की दृष्टि में दोनों का समन्वय ही जीवन की पूर्णता के लिए आवश्यक है। उपनिषदों का सार गीता
इस प्रकार गीता के पुष्पिका-वाक्य के दो प्रधान अंशों की सार्थकता पर हमने विचार किया। अब तीसरा अंश ‘श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु’ यह वाक्य है। ऊपर कहा गया है कि गीता नर के लिए नारायण की वाणी है। यदि स्वयं ईश्वर कुछ कहे या उपदेश करे, तो वह क्या भाषा होगी? इसका उत्तर है कि वह गीता या कविता ही हो सकती है। ईश्वर की भाषा यह विश्व है, जिसके द्वारा और जिसके रूप में जो कुछ उसके पास करने के लिए था वह सब कुछ उसने कह दिया है। अतएव वेदों में विश्व को ‘देवकाव्य’ कहा है, जिसकी भाषा और जिसके अर्थ कभी पुराने नहीं पड़ते। कविता वह है, जो बाह्य स्थूल वस्तु या शब्द के भीतर छिपे हुए अर्थ को प्रकट करती है। इसीलिए कवि को क्रान्त दर्शी कहते हैं। कवि अर्थ को देखता है। अर्थ ही ब्रह्म है, शब्द भौतिक विश्व है। शब्द अर्थ को प्रकट करने वाला काव्य है। शब्द प्रकट है, अर्थ रहस्य है। इसीलिए अर्थ को ‘उपनिषद्’ कहा है। यह गीता स्थूल दृष्टि से शब्दों में निबद्ध गीत या कविता है, किन्तु अर्थ की दृष्टि से यह महान रहस्य या उपनिषद् है। जो गुह्य अर्थ है, वही अध्यात्म है। वह एक अनबूझ पहेली है। इसलिए उसे संप्रश्न भी कहते हैं। यह रहस्य ही ब्रह्म विद्या है। भारतीय संस्कृति ने आरम्भ में ही इस ब्रह्म विद्या या रहस्य-ज्ञान को जिस वाङ्मय द्वारा प्रकट किया, उसी की संज्ञा वेद है। कालान्तर में वेद के ही ज्ञान को वेदारण्यक या उपनिषद् या वेदान्त भी कहने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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