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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 23
ये सब शब्द साहित्य में प्रयुक्त हुए हैं। ‘वेदान्तेषु यमाहुरेकपुरुषं व्याप्य स्थितं रोदसी’ कालिदास के इस वाक्य में उपनिषदों की ही परम्परा को वेदान्त कहा है। ब्रह्मसूत्र तो साक्षात उपनिषदों की अध्यात्म विद्या की ही व्याख्या करने के लिए है। इसी दृष्टिकोण से पुष्पिका में गीता के ज्ञान को उपनिषद् कहा गया है। जो उपनिषदों का अर्थ है, वही गीता में है। उपनिषद गौएं हैं, गीता उनका अमृत दूध है। जैसा हम आगे देखेंगे, वेद और उपनिषदों की शब्दावली या भावों का हवाला देते हुए गीताकार ने अपने विचार प्रकट किये है। क्षर, अक्षर, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ऊर्ध्व, अधः, अश्वत्थ आदि ऐसे ही शब्द हैं। जो गीता को समझना चाहे, उसे वेद-विद्या तक पहुँचने के लिए अपने मन को तैयार रखना चाहिए। यदि यह ठीक है कि उपनिषदों की मलाई गीता में आई है तो जिस दूध की वह मलाई है, उससे परिचित होने के लिए भी हमारे मन मे उमंग होनी चाहिए। गीता में जितना स्थान कर्म शास्त्र का है, उतना ही ब्रह्मविद्या को है। गीता के लिए ब्रह्म के बिना कर्म की कोई स्थिति नहीं। ब्रह्म शून्य लिए कर्म बन्धन या केवल श्रम है। इस प्रकार गीता की पुष्पिका उसे समझने के तीन स्पष्ट सूत्र हमें देती है। पहला यह कि विश्व और मनुष्य दोनों का मूल एक सत् तत्त्व है। दूसरा यह कि ज्ञान और कर्म दोनों ही गीता के विषय हैं और दोनों ही मनुष्य के लिए आवश्यक हैं एवं तीसरा यह कि गीता का यह उपदेश ईश्वरीय ज्ञान या दिव्य ज्ञान के अनन्त स्रोत वेदों और उपनिषदों का निचोड़ है। वेद और उपनिषद भारतीय अध्यात्मविद्या, ब्रह्मविद्या या सृष्टिविद्या के स्रोत हैं। इस क्षेत्र में प्राचीन भारत के मनीषियों ने जो सशक्त और उदात्त चिंतन किया था, उसका सार गीता है। किसी अन्य शास्त्र के खण्डन-मण्डन में गीता को रुचि नहीं। उसका उद्देश्य भारतीय ज्ञान का मथा हुआ मक्खन प्रस्तुत करना है। गीता की शैली और भाव दोनों मधुर रस से ओत-प्रोत हैं, अतः वह मानव के हृदय की निकटतम भाषा है। दूसरा अध्याय - सांख्य योग
विषाद की चरम सीमा पर पहुँचे हुए अर्जुन के लिए ज्ञान और कर्म दोनों की ही शक्ति क्षीण हो चुकी थी। न वह इस योग्य रह गया था कि प्रवृत्ति मार्ग में लग सके और न निवृत्ति मार्ग को ही दृढ़ता से ग्रहण करने की उसमें पात्रता उत्पन्न हुई थी। किन्तु अर्जुन ने जो कहा, उससे प्रकट होता है कि वह अपने लिए निवृत्ति का मार्ग चुनना श्रेयस्कर मान रहा था। उसके तर्कों में सार न था, क्योंकि उनकी उसके जीवन के साथ असंगति थी। अतएव सर्वप्रथम आवश्यक था कि उसके उन हेत्वाभासों का कुहासा या आवरण दूर किया जाय और निवृत्ति धर्म का जो सच्चा स्वरूप है, उसकी व्याख्या की जाय। यही गीता के दूसरे अध्याय के विषय हैं। सर्वप्रथम भगवान ने प्रज्ञा दर्शन के दृष्टि कोण से अर्जुन के विचारों की समीक्षा की। प्रज्ञा-दर्शन का आधार मनुष्य की बुद्धि या व्यवहार में काम आने वाली समझदारी है। चाहे जैसी परिस्थिति हो, प्रज्ञा ही मनुष्य का सहारा है। हम पहले की चुके हैं कि प्राचीन युग में प्रज्ञा दर्शन नाम का एक विशेष दृष्टि कोण था, जिसकी विस्तृत व्याख्या उद्योग पर्व के अन्तर्गत विदुर-नीति में आ चुकी है। प्रज्ञा, पञ्ञा, पण्डा ये तीनों बुद्धि के पर्याय हैं। प्रज्ञावादी को लोक में पण्डित भी कहते थे। कृष्ण प्रज्ञावादी थे और अर्जुन का भी दृष्टि कोण यही था। इस शास्त्र का दृष्टि कोण यह है कि जीवन में मध्यमार्ग का आश्रय लिया जाय। इसके अनुसार अध्यात्म और जीवन, ये दोनों विरोधी तत्त्व नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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