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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 23
इनका समन्वय या मेल करना सम्भव है और वही इष्ट है। प्रज्ञा दर्शन के अनुसार सोचते हुए अर्जुन को ऐसा जान पड़ा कि युद्ध करने की अपेक्षा युद्ध न करना बढ़कर है। जिन्होंने अब तक उसके अधिकारों का अपहरण किया था, उन्हें मारने की अपेक्षा भीख मांगकर खाना श्रेयस्कर है। इस प्रकार की थोथी विचार धारा को कृष्ण ने ‘प्रज्ञावाद’ कहा है और उसकी हंसी उड़ाई है।[1] सर्वप्रथम प्रज्ञावदी को यह ज्ञात होना चाहिए कि मृत्यु और जन्म दोनों अटल हैं। जन्म से हर्ष और मृत्यु से शोक करना प्रज्ञादर्शन का अंग नहीं।[2] प्रज्ञा दर्शन की सबसे करारी टक्कर भाग्यवादी दर्शन से थी, जिसे नियति वाद या दैष्टिक (दिष्ट-भाग्य) मत भी कहते थे। वस्तुतः जन्म और मृत्यु दोनों टाले नहीं जा सकते। वे समय से होकर ही रहते हैं। इस बात को प्रज्ञा वादी और नियति वादी दोनों मानते थे, किन्तु दोनों के परिणाम भिन्न-भिन्न थे। नियति वादी सोचता था कि जब भाग्य के विधान में सबको जीना और मरना है तो मनुष्य उसका हेतु क्यों बने? वह अपने कर्म से इसमें निमित्त क्यों बने? अतएव शान्ति से रहना अच्छा। युद्ध आदि के बखेड़े में पड़ना ठीक नहीं। इसी को वे निर्वेद या वैराग्य कहते थे। शान्ति पर्व 171।2 के अनुसार नियति वादी मत के पांच सिद्धान्त थे- सर्वसाम्य[3], अनायास[4], सत्य वाक्य, निर्वेद[5], अविवित्सा।[6] भाग्य वादी ‘मा कर्म कार्षीः’ ‘मा कर्म कार्षीः’ रटकर शारीरिक और बौद्धिक दोनों प्रकार के कर्मों का निराकरण करते थे और कहते थे कि इस प्रकार की निष्कर्म वृत्ति से सच्ची शान्ति प्राप्ति हो सकती है। प्रज्ञा वाद का लक्ष्य भी ‘नैष्कर्म्य’ और शान्ति ही था, किन्तु वे दूसरे तर्क और दृष्टि कोण को स्वीकार करते थे। जब व्यक्ति का जीना और मरना किसी ध्रुव नियम के अधीन है, तो जो होकर रहेगा उसे टाला नहीं जा सकता, अतएव जो जिसका कर्तव्य है, उससे मुंह मोड़ना उचित नहीं। दूसरा तथ्य यह कि जन्म और मरण के अटल विधान में उस प्रकार के शोक और मोह का कोई स्थान नहीं, जैसा भीष्म-द्रोण आदि की कल्पना से अर्जुन के मन में उत्पन्न हो गया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2।11
- ↑ गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः 2 ।11, पण्डिताः = प्रज्ञावादिनः
- ↑ सबको समान समझना, अर्थात कर्म से उन्नति और ह्रास के सिद्धान्त को न मानना
- ↑ हाथ-पैर हिलाकर श्रम न करना और अजगर की वृत्ति से जीवन बिताना
- ↑ वैराग्य लेकर कर्म के प्रति उदासीन रहना
- ↑ जीवन की उपलब्धियों से अलग रहना
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