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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 23
ये ही युक्तियां कृष्ण ने सामने रखीं। अर्जुन ने जिस ढंग से सोचा था, वह प्रज्ञा दर्शन का आभास था, सत्य नहीं। भगवान ने जीवन और मरण के सम्बन्ध में प्रज्ञा दर्शन के वास्तविक दृष्टि कोण को और अधिक पल्लवित करते हुए कहा कि मैं और तुम और ये सब योद्धा नित्य हैं अतएव सदा से हैं और सदा रहेंगे। कभी ऐसा न था, जब ये न रहे हों और कभी ऐसा नहीं होगा, जब ये न रहें। इनकी जन्म, वृद्धि और ह्रास के नियम को इस प्रकार काल के अधीन समझो, जैसे प्रत्येक के शरीर में कौमार्य, यौवन और जरा के बाद फिर नया शरीर आ जाता है।[1] स्पष्ट है कि यह वाक्य आत्मा की नित्य सत्ता को मानकर कहा गया है, जो प्रज्ञा दर्शन का अंग था। नियति वादी दर्शन में आत्मा की सत्ता पर उतना बल न था, जितना भूतों के व्यवहार पर। जो व्यक्ति भूतों को अधिक महत्त्व देता है, वह संयोग-वियोग सुख-दुःख इनसे विचलित होता है। अनात्मवादी बुद्ध ने भी इन तथ्यों पर अधिक ध्यान दिया था, किन्तु जो आत्मवादी नित्य आत्मा में विश्वास रखते हैं, उनके अनुसार सुख दो प्रकार का है- एक अमृत सुख और दूसरा मात्रा सुख। विषयों से सम्बन्धित पांच तन्मात्राओं के फेर में पड़कर जो सुख-दुःख होते हैं, वे मात्रा सुख हैं, अनित्य हैं, आने और जाने वाले हैं। उन्हें सहना ही होगा। जो इनसे ऊपर उठता जाता है, वही धीर है। दुःख और सुख को एक समान मान कर जो आत्मा के अमृत सुख का उपभोग करता है, वही धीर या प्रज्ञाशाली है।[2] यहाँ यह स्पष्ट है कि आत्मा का सुख अमृत सुख और इन्द्रियों का सुख मात्रा सुख है। पहला नित्य, दूसरा क्षणिक है। आत्म वाद और देह वाद
जब भगवान ने अमृत सुख की ओर ध्यान दिलाया और इन्द्रिय सुख की अपेक्षा उसे श्रेयस्कर कहा तो उसी प्रसंग यह भी आवश्यक हुआ कि आत्मा का निराकरण करके भौतिक देह को प्रधान मानने वाले दृष्टि कोण का भी खण्डन किया जाय। यहाँ प्रकट रूप से वे खण्डन की भाषा का प्रयोग नहीं करते, किन्तु नित्य आत्मा की सत्ता और स्वरूप के विषय में जिस रोचनात्मक शैली का उन्होंने प्रयोग किया है, वह अत्यंत आकर्षक है। वेद से लेकर उपनिषदों तक जो अध्यात्म-विद्या की अप्रतिहत मान्यता थी अर्थात ब्रह्मतत्त्व या सत् तत्त्व या आत्म तत्त्व में ध्रुव विश्वास, वही सार रूप में गीता के इन श्लोकों में[3] आ गया है। यहाँ उन प्राचीन तत्त्व दर्शियों का स्पष्ट उल्लेख आया है कि सद्सद्वाद की युक्तियों से ब्रह्म की सत्ता के विषय में विचार करते थे। नासदीय सूक्त के सद्सद्वाद दर्शन में उन्हीं की विचार धारा पाई जाती है। और भी ब्राह्मण तथा उपनिषदों में अनेक स्थान पर इस प्रकार के दार्शनिक चिंतन का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार दो तत्त्व हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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