विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 24
एक ब्रह्म, जिसे ‘आभु’[1] कहते थे- आ समन्तात् भवतीति आभु, अर्थात जो सर्वतः परिपूर्ण, देश और काल में सर्वत्र व्यापनशील है, वह सत्तत्त्व आभु हैं। इसकी अपेक्षा विश्व ‘अभ्व’ कहा जाता है- भूत्वा व भवतीति अभ्वम्, अर्थात जो है, ऐसा जान पड़े, किन्तु फिर कुछ नहीं रहता। इसे ही वैदिक भाषा में ‘तुच्छ्य’ भी कहा गया है। तुच्छ्य या क्षुद्र ने उस विराट ब्रह्म की सत्ता को ढक रखा है।[2] यही नित्य ब्रह्म और क्षणिक विश्व का सम्बन्ध है। गीता ने जिन सत् और असत् दो शब्दों का प्रयोग किया है, उनका संकेत ऊपर कहे हुए ब्रह्म और जगत के स्वरूप की ओर ही है। आभु कभी अभ्व नहीं हो सकता और अभ्व कभी आभु नहीं बन सकता। दोनों के स्वरूप और स्वभाव सर्वधा विभिन्न हैं। तत्त्वदर्शी ऐसा निश्चित जान चुके हैं- (नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः, 2। 16)। उस नित्य सत् तत्त्व को ही अविनाशी और अव्यय भी कहते हैं। वैदिक दर्शन के अनुसार तीन प्रकार के पुरुष कहे गये हैं। एक अव्यय, दूसरा अक्षर, तीसरा क्षर। अव्यय को ही अज भी कहते हैं। अक्षर और क्षर की व्याख्या स्वयं गीता में आगे कही गई है।[3] अज या अव्यय के लिए गीता में पुरुषोत्तम और परमात्मा शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं।[4] अध्यात्म भाषा की समृद्धि इन नामों में प्रकट हुई है। जो अज है, वह नित्य है, शाश्वत है, पुराण है, अविनाशी है, अप्रमेय है। इस प्रकार की परिभाषाएं गीता में और उपनिषदों में समान रूप से मिलती है। इसे शरीर में रहने के कारण नित्य शरीरी[5] या देही[6] भी कहा गया है, जिसका तात्पर्य आत्मा से है। विराट पुरुष का शरीर यह विश्व है और व्यष्टि आत्मा का शरीर यह पंच भौतिक देह है। ब्रह्म के और आत्मा के शरीर की यह कल्पना विशुद्ध वैदिक है। वेदों में ब्रह्म की एक संज्ञा पुरुष है, जैसा पुरुष सूक्त में प्रसिद्ध है। उसकी व्युत्पत्ति करते हुए ब्राह्मण ग्रन्थों में लिखा है कि वह ब्रह्म विश्व-रूपी पुर में निवास करने के कारण ‘पुरिशय’ कहलाता है और इस गुण के कारण उसे परोक्ष शैली या सांकेतिक भाषा में पुरुष कहते हैं।[7] शरीर शब्द ‘शृ विशरणे’ धातु से बनता है, अर्थात यह शरीर पंच भूतों का समुदाय है, जो कुछ समय के लिए है, पर वे बिखर जाते हैं। इन पंच भूतों की विधृति अर्थात इन्हें एकत्र धारण करने वाला जो तत्त्व है। वही प्राण है, वही देही, शरीरी और आत्मा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋग्वेद 10।129।3
- ↑ तुच्छ्येन आभु अपिहितम्, ऋग्वेद
- ↑ 15। 16
- ↑ 15।17-18
- ↑ 2।18
- ↑ 2।30
- ↑ प्राण एष स पुरि शेते तं पुरि शेत इति पुरिशयं सन्तं प्राणं पुरुष इत्याचक्षते, गोपथ ब्रा. पूर्वभाग 1। 39
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज