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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 24
आत्मवाद और देहवाद
वैदिक दर्शन के इस मूल तत्त्व को गीताकार ने बहुत ही उदात्त और स्पष्ट शब्दों में कहा है, “यह विश्व (इदं सर्वम्) जिससे प्रकट हुआ है वह अविनाशी है, उस अव्यय का विनाश कभी सम्भव नहीं। देह का अन्त होता है, किन्तु उसमें निवास करने वाले आत्मा का नहीं। आत्मा न कभी जन्म लेता है, न मरता है, क्योंकि वह अजन्मा, नित्य और शाश्वत है। यह आत्म तत्त्व काल-परिच्छिन्न नहीं, सनातन है, वह स्थाणु और अचल है अर्थात देश और काल के वशीभूत नहीं होता। इसकी सत्ता सर्वत्र है। यह अव्यक्त है। इसके कारण से व्यक्त भौतिक देह का अनुभव होता है। देह विकारी है, यह स्वयं विकार-रहित है।” वैदिक दर्शन के इस प्राचीन और सर्वसम्मत सिद्धान्त को अर्जुन के सामने रखकर कृष्ण ने उसकी युक्तियों का उत्तर दिया, “यदि आत्मा की नित्यता को तुम मानते हो तो हे अर्जुन! यह स्पष्ट है कि न कोई किसी को मारता है, न कोई मरता है। शस्त्र जिसको काटते हैं, वह देह है, आत्मा पर आग, पानी और हवा का असर नहीं होता। यह जो भौतिक देहों का बनना-बिगड़ना तुम देखते हो, यह तो ऐसा ही है जैसे पुराना वस्त्र छोड़कर नया पहन लेना।[1]” इस वैदिक मत के अतिरिक्त और भी कई मत अस्तित्व में आ चुके थे, जैसे भूतवाद और स्वभाववाद। ये जन्म और मृत्यु को तो मानते थे, किन्तु नित्य आत्मा को नहीं। यहाँ गीताकार ने उनके मत का उल्लेख करते हुए भी अपनी ही युक्ति का समर्थन किया है, “यदि तुम इसे नित्य (बार-बार) जन्म लेने और मरने वाला मानो तो भी शोक करने का कारण नहीं।[2] यह क्षणिकवादी दृष्टि कोण था, जो जन्म एवं मृत्यु आदि सांसारिक घटनाओं को स्वभाव से प्रवर्तित मानता था, ब्रह्म आदि कारणों की प्रेरणा से नहीं। आत्मा के विषय में प्राचीन मतवादभगवान कृष्ण प्रज्ञावादी दर्शन के अनुयायी थे। ऊपर उन्होंने स्वभाववादी दार्शनिकों की उक्तियों का खण्डन किया है। इन्हीं से मिलता-जुलता दर्शन यदृश्च्दावाद था। उनके अनुयायी मानते थे कि विश्व का न कोई रचने वाला है, न कोई इसका कोई आदि है, न अन्त है, अर्थात यह जन्म और मृत्यु के किसी नियम से नियन्त्रित नहीं है। यह तो अपने आप ही पड़ा है, न इसके आदि का ठिकाना है, न अन्त का। जो बीच में देख रहे हो, वही सब कुछ है। इस मत के उत्तर में कृष्ण का कहना है कि यदि इस मत को मान लिया जाय तो भी शोक करना ठीक नहीं। आत्मवादी लोग इसी युक्ति को अपने पक्ष में भी उपयोग करते थे। उनका कहना था कि आत्मा पहले भी अव्यक्त या अमूर्त था, और बाद में भी वह इसी स्थिति को प्राप्त हो जायगा। केवल बीच में ही शरीर के संयोग से वह मूर्तरूप में दिखाई पड़ता है। तो फिर ऐसी स्थिति में रोने-धोने से क्या लाभ।[3] वस्तुतः आत्मा के सच्चे स्वरूप के विषय में उस युग के तत्त्ववादियों के विभिन्न मतों का एक गड़बड़झाला-सा ही दीखता है। उसी का संकेत 2।29 श्लोक में है- कोई तो इस आत्मा के दर्शन को बड़ा अचरज मानते हैं, कोई दूसरे इसे बड़े अचरज-भरे शब्दों में इसका वर्णन करते हैं, और कोई जब इसे सुनते हैं तो बहुत अचरज में भर जाते हैं कि क्या ऐसा होना भी सम्भव है, अर्थात सुनने वालों को आत्मा के उन गुणों में विश्वास नहीं होता। वे नहीं मानते कि कोई ऐसी वस्तु भी सम्भव है जो आग, पानी और हवा से कट पिट न सके। इस आश्चर्य-भरी शैली में आत्मा की चर्चा करने वालों में ऐसा कोई नहीं है, जो इसे ठीक तरह जानता हो। यहाँ स्वभाव वाद, नियति वाद, भूत वाद आदि दर्शनों की आत्मा-सम्बन्धी मान्यता पर गीताकार ने उपहासात्मक शैली में दृढ़ प्रहार किया है। इसके अनन्तर पुनः वैदिक अध्यात्मवादी दृष्टि से कहा है कि शरीर में आया हुआ यह आत्मा (देही) नित्य है, कभी मर नहीं सकता। इसलिए कोई भी प्राणी शोक के योग्य नहीं है।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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