विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 23
यदि यह कहा जाय कि ये अधर्म का पक्ष लेकर आये हैं, तो मेरा यह कहना है कि सचमुच इन्होंने हम भाइयों के साथ और द्रौपदी के साथ घोर आतताईपन के काम किये हैं, किन्तु यह जानते हुए भी मैं इनका वध नहीं करूंगा। ये अंधे हैं। इन्हें अपना पाप दिखाई नहीं पड़ता। जिसके आंख हैं, वही सच्चाई को देखता है, अंधे को सत्य नहीं दिखाई पड़ता। इनके पास हृदय की आंख नहीं है, अतएव ये दयनीय हैं, पर हमारे पास तो विवेक की आँख है। हम भले-बुरे की पहचान क्यों न करें? जिसकी आंखों पर लोभ का पट्टा चढ़ जाता है, उसके अंधे चित्त को सत्य नहीं सूझता, पर हम कुल के क्षय से होने वाले इस बड़े पाप को कैसे न देखें? भारतीय संस्कृति में कुल ही जीवन का मूलाधार है। व्यक्ति या जाति या राष्ट्र के धर्मों की रक्षा और परम्परा यहाँ कुलधर्म के रूप में जीवित रही है। अर्जुन ने जिस संकट की आशंका प्रकट की, वह युद्ध के परिणाम से होने वाला सच्चा संकट था। एक प्रकार से राष्ट्र का जो सदाचारमय महान धर्म है, वह कुलों की मर्यादा बिगड़ने से अस्त-व्यस्त हो जाता है।[1] अर्जुन ने सोचा, “यह युद्ध महान पाप है। मेरा हित इसी में है कि मैं युद्ध न करूं, भले ही कौरव मुझे मार डालें। ऐसी विचार धारा में उसने अपना धनुष बाण डाल दिया। उसका चित्त इस नए वैराग्य-धर्म से संमूढ हो गया और उसके भीतर-बाहर शोक छा गया। उसने कृष्ण से कहा, “मुझे अब नहीं जान पड़ता कि मेरा हित किसमें है? मेरा जो क्षात्र स्वभाव था, वह जाता रहा। मैं आपका शिष्य हूँ और नम्रता से आपकी शरण में आता हूँ। आप गुरु बनकर मुझे कल्याण-मार्ग का उपदेश दीजिए। यही गीता के पहले अध्याय का सार है, जिसे ‘अर्जुन विषाद योग ’ कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः, 1।43
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज