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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 2
भूमिका
शान्ति पर्व के ‘भीष्मस्तवराज’ में स्तोत्र को वाग्यज्ञ कहा गया है। द्रव्य यज्ञ बहु व्यय-साध्य है, किन्तु स्तोत्र रूपी वाग्यज्ञ द्वारा इष्ट देव का आराधन सुलभ है। यों भी देव तत्त्व के सान्निध्य के दो ही उपाय हैं। एक मानस ध्यान द्वारा, दूसरे वाक की शक्ति के द्वारा। मन, प्राण, वाक इन तीनों से यह चैतन्य युक्त शरीर बना है। इनमें प्राण मध्यस्थ है। जब वह अपनी शक्ति मन को देता है तो उससे देव तत्त्व का ध्यान किया जाता है; पर जब प्राण की शक्ति वाक या पंचभूतात्मक शरीर को प्राप्त होती है, तो उससे वाणी द्वारा देवता का यजन या वाग्यज्ञ किया जाता है, उसे ही स्तोत्र कहते हैं। यह उल्लेखनीय है कि अपने साहित्य में कई सहस्रनाम पाये जाते हैं, जैसे गायत्री सहस्रनाम;[1] पार्वती सहस्रनाम;[2] गंगा सहस्रनाम;[3] विष्णु सहस्रनाम।[4] इसके अतिरिक्त शिव के भी कितने ही उत्तम स्तोत्र हैं। जो शिवस्त्रोत हैं, वे ही रुद्र स्तोत्र हैं, क्योंकि रौद्र भाव की शान्ति से ही शिवात्मक भाव की प्राप्ति होती है। मत्स्य पुराण में शुक्रकृत शिव का अति उत्तम नमः स्तोत्र है,[5] जो यजुर्वेद के 16 वें अध्याय के शतरुद्रिय स्तोत्र और शान्ति पर्व अध्याय 47 के भीष्मस्तवराज की शैली पर है। हरिवंश में कश्यप कृत रुद्र स्तोत्र[6] और कृष्ण कृत रुद्र स्तोत्र[7] उल्लेखनीय हैं। विष्णु कृत शिव का एक नमः स्तोत्र भी है।[8] पुराण साहित्य में शिव के तीन सहस्रनाम भी पाये जाते हैं, जो अति महत्त्वपूर्ण हैं। तात्त्विक दृष्टि से उनकी कल्पना विराट है। पहला स्तोत्र तण्डि कृत शिव सहस्रनाम है।[9] यही महाभारत के अनुशासन पर्व में भी उद्धृत हुआ है।[10] दूसरा दक्ष कृत शिव सहस्रनाम है, जो वायुपुराण अध्याय 30 में आया है। वहीं से लेकर उसे शान्ति पर्व के लेखक ने[11] उद्धृत किया है; किन्तु पूना संस्करण में पाठ-संसोधन के समय यह अंश प्रक्षिप्त सिद्ध हुआ है। ज्ञात होता है कि यह शान्ति पर्व के मूल पाठ में कालान्तर में जोड़ा गया, जो महाभारत की कुछ वाचनाओं में आज भी नहीं है। इसी शिव सहस्रनाम को वामन पुराण के लेखक ने अध्याय 47 में उद्धृत किया है। किन्तु वहाँ उसे दक्षकृत न मानकर वेनकृत कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देवी भागवत, 12। 6। 10-155. ब्रह्माण्ड के मध्य में स्थित देवी का अकारादि क्रम से स्तोत्र
- ↑ कूर्मपुराण पूर्वखण्ड, 12।62-199
- ↑ स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, 29। 17-167
- ↑ पद्मपुराण, उत्तरखण्ड अ. 72 श्लोक 123-297
- ↑ मत्स्य 47। 28-168
- ↑ हरिवंश 2। 72। 29-60
- ↑ हरिवंश 2। 84। 22-34
- ↑ लिंगपुराण 1। 21। 2-71
- ↑ लिंगपुराण 1। 65। 54-168
- ↑ अनुशासन पर्व, 17। 31-153
- ↑ 284। 69
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