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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 2
भूमिका
तीसरा शिव सहस्रनाम स्तोत्र विष्णु कृत है, जो लिंग पुराण में ही दूसरी बार आया है।[1] ज्ञात होता है कि लिंग पुराण में तण्डि कृत स्तोत्र पहले से विद्यमान था और कुछ समय बाद शिव, विष्णु की भक्ति का समन्वय करते हुए किसी योग्य लेखक ने इसे भी उसमें स्थान दे दिया। भगवान शिव का एक अत्यन्त उदात्त स्तोत्र जैमिनि कृत ‘वेदपादस्तव’ है, जिसमें कितने ही वैदिक मन्त्रों के चरणांश लेकर प्रभावशाली छन्दों की माला गूंथी गई है।[2] वस्तुतः द्रोण पर्वान्तर्गत व्यासकृत चतुर्विध शिव स्तोत्र भी शैली और भावों की दृष्टि से अत्यन्त तेजस्वी है। यह स्मरण रखना चाहिए कि तत्त्व की दृष्टि से अग्नि, रुद्र और प्राण एक-दूसरे के पर्याय हैं, जैसा कहा है: प्राणाय चैव रुद्राय जुहोत्यमृतमुत्तम्।।[3] अतएव रुद्र तत्त्व या प्राण तत्त्व की प्रशंसा में जो कहा जाय, कम है। जैसे अग्नि के घोर और अघोर दो शरीर हैं, जैसे प्राण के शान्त और कुपित दो रूप हैं, वैसे ही शंकर के भी रुद्र और शिव ये दो रूप हैं। प्रजापति का सृष्टि में स्थिर किया हुआ जो सेतु है, उस बन्धेज का उल्लंघन करने से शान्त शिव घोर बन जाते हैं। स्तोत्रों के रचयिता दोनों रूपों में उनकी आराधना करते हैं। वस्तुतः द्वंद्वात्मक सृष्टि के तनाव में पड़ा हुआ प्राणी यदि भगवान के रुद्र रूप को नहीं पहचानता तो वह उनके शिव रूप का समराधन भी सकुशल नहीं कर सकता। अशिव या अमंगल के निवारण से ही मंगलात्मा शिव का आगमन होता है। कर्ण पर्व में कर्ण और शल्य की तू-तू मैं-मैं बहुत प्रसिद्ध है। हमारे मन से सदा यह प्रश्न उठता था कि इस प्रकार के अभद्र विवाद का संकेत या असली मर्म क्या है? सौभाग्य से इस वर्णन के पीछे जो ठोस ऐतिहासिक आधार था, वह हमारे हाथ लग गया। यह मद्र देश या पंजाब के राजा शल्य की छीछालेदर नहीं, किन्तु इस वर्णन के ब्याज से उन यूनानी लोगों की धज उतारी गई है, जिन्होंने मद्र की राजधानी शाकल में एक शती तक राज्य किया और जिन्हें मद्रक यवन कहते थे। बाह्लीक या बैक्ट्रिया में राज्य करने वाले पूर्वकालीन यूनानी बाह्लीकयवन और मद्रदेश या पजांब में राज्य करने वाले उत्तर कालीन यूनानी मद्रकयवन कहलाते थे। उनका रहन-सहन और आचार-विचार भारतीयों से भिन्न था और गोमांस आदि का भक्षण, अत्यधिक सुरापान, स्त्रियों के साथ खुलकर नाचना, आर्य नियमों के सदृश शौच का अभाव, ये कुछ ऐसी बातें थीं, जिनके विरुद्ध भारतीयों में अत्यधिक रोष उत्पन्न हुआ और वह उबाल शल्य-कुत्सन नाम के इस प्रकरण में बचा रह गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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