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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 2
भूमिका
यूनानियों का ऐसा कटखना वर्णन किसी भी और देश के साहित्य में नहीं पाया जाता। हमारा अनुमान है कि इसकी रचना पुष्यमित्र शुंग (लगभग 185 ई. पू.-156 ई.पू.) के काल में हुई। पुण्यमित्र और उनके उत्तराधिकारी ब्राह्मण वंशज थे और यहाँ यह बार-बार कहा गया है कि कोई ब्राह्मण मद्रदेश से घूमकर आया और उसने यह सूचना दी। इतना ही नहीं, इस प्रकार का प्रचार उस युग की आवश्यकता थी। इस वर्णन के नव (9) पैबन्द हैं, जिन्हें एक साथ सी दिया गया है; पर वे थेकलियां आज भी स्पष्ट दिखलाई पड़ती हैं। ज्ञात होता है कि इन वर्णनों का बहुत कुछ उद्देश्य मद्रदेश की जनता के मन को यूनानियों के विरुद्ध फेरना था। अतएव मानो इस प्रकार के लोकगीत जान-बूझकर जनता में प्रचारित किये गए। मूल वर्णनों में इन्हें कई जगह गाथा कहा गया है। अनुमान होता है कि जब लोग महाभारत की कथा सुनते थे, तो उसी के साथ मद्रक यवनों का यह प्रसंग भी सुनाया जाता था और इसका गहरा रंग उनके मन पर पड़ता था, जिससे समस्त मध्यदेश के यवनों से प्रतिशोध का बवंडर उठ खड़ा हुआ और सचमुच उस काली आन्धी के प्रकोप से मद्रक तिनके की तरह उड़ गए। पतंजलि ने महाभाष्य में एक उदाहरण दिया है ‘दुर्यवनं’ उसका अर्थ है यवनों का घोर विनाश। वह मद्रक यवनों पर आई हुई इसी प्रकार की विपत्ति का सूचक है। पुष्यमित्र और उसके सुयोग्य पौत्र वसुमित्र के नेतृत्व में मध्यदेश से उठा रेला मद्रक यवनों को बहा ले गया। ‘भारत सावित्री’ के प्रथम खण्ड के पहले 28 लेख ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के द्वारा प्रचारित हुए थे और बाद में विराट पर्व के अन्त तक की सामग्री जोड़कर उन्हें पुस्तक रूप दिया गया। उससे जनता को ग्रन्थ के विषय में अत्यधिक रुचि उत्पन्न हो गई थी। उसी प्रकार गीता के अठारह अध्यायों की व्याख्या ‘गीता-नवनीत’ शीर्षक से साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुए और उसके सम्बन्ध में कई पाठकों ने अपनी अभिरुचि प्रकट करते हुए उन्हें पुस्तक रूप में देखने की इच्छा प्रकट की। आशा है, ‘भारत सावित्री’ का यह द्वितीय खण्ड उन्हें रुचिकर होगा, क्योंकि गीता की व्याख्या के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की धार्मिक और सांस्कृतिक सामग्री इसमें समाविष्ट हुई है। महाभारत शत साहस्री संहिता है। समस्त भारतीय राष्ट्र का धर्म, दर्शन, कला और संस्कृति महाभारत में प्रतिबिम्बित है। प्राचीन उक्ति के अनुसार वेदव्यास ने यह विलक्षण ज्ञानमय प्रदीप प्रज्वलित किया है। सचमुच महाभारत रत्नों की विलक्षण खान है। इस पर प्राचीन युग की देवबोध, अर्जुन मिश्र, सर्वज्ञ नारायण आदि की कई अच्छी टिकाएं उपलब्ध हैं। किन्तु आज का पाठक उन टीकाओं की परिधि से ऊपर उठ कर महाभारत को स्वयं अपने समीक्षात्मक नेत्र से देखना चाहता है। यही महाभारत के संवर्धन शील स्वरूप की विशेषता है। महाभारत ज्ञान का वह अमृत कलश है, जो व्यास के मन रूपी गरुड़ द्वारा मानव-कल्याण के लिए पृथ्वी पर लाया गया है। ऋग्वेद के शब्दों में ‘आ पूर्णो अस्य कलश ........ स्वाहा[1] यह अमृत कलश, मंगल घट या पूर्ण कुम्भ जीवन के सत्यरूपी अमृत से ओत-प्रोत है। उसके परिमित शब्दों में अमित अर्थ भरा है। बार-बार प्रयत्न करने पर भी यह सम्भव नहीं हो पाता कि उसकी पूरी अर्थ गति मन में आ सके। भविष्य में जिस बड़भागी पर सरस्वती की महती कृपा होगी, उसे सहस्र नेत्रों से महाभारत के समग्र अर्थ का दर्शन सिद्ध हो सकेगा। -वासुदेवशरण अग्रवाल |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋग्वेद 3। 32। 15
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