विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 65-67
42. गोग्रहण
सुनकर विराट ने पूछा, ‘‘यदि ये कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर हैं, तो इनके अन्य भ्राता अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव कहाँ हैं? और यशस्विनी द्रौपदी कहाँ है? जब से पाण्डव जुए में हारे तब से उनका कोई समाचार नहीं मिला। अर्जुन ने कहा, ‘‘आपका जो यह वल्लभ सूद है, यही महाबाहु भीम है। यहीं वे गन्धर्व हैं, जिन्होंने कीचक को मारा था। जो अब आपके अश्वपाल बने थे वे नकुल और गोसंख्य रूप में सहदेव हैं। सुहासिनी सैरन्ध्री ही द्रौपदी है और मैं अर्जुन हूँ। जैसे संतति गर्भ में सुख से रहती है, वैसे हम सब आपके घर में सुखपूर्वक रहे।’’ जब अर्जुन ने इस प्रकार परिचय दिया तब उत्तर ने उस पराक्रम का वर्णन किया, जो उसने संग्राम में कुरुओं के पराजय के समय प्रकट किया था। उसका वचन सुनकर मत्स्यराज अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहा, ‘‘हम युधिष्ठिर के अनुरक्त हैं, उनका सम्मान और प्रसादन करना चाहिए। यदि तुम सहमत हो जो उत्तरा का विवाह अर्जुन से कर दो।’’ उत्तर ने कहा, ‘‘अवश्य ही महाभाग पाण्डवों का पूजन-सम्मान करना उचित है।” विराट ने बताया कि मैं भी युद्ध में शत्रुओं के हाथों में पड़ गया था, मुझे भीमसेन ने छुड़ाया और गायों को जीता। तब विराट ने अपने अमात्यों के साथ कुंतीपुत्र युधिष्ठिर से क्षमा मांगी, “आपको न जानकर हमने जो कहा-सुना हो, कृपया उसे क्षमा करें।” और यह कहकर अपनी सेना और कोष युधिष्ठिर को समर्पित किया और कहा, “यह कैसे आनंद की बात है कि हम सब इस कष्ट से सकुशल पार हुए? सव्यसाची अर्जुन उत्तरा को ग्रहण करें। ये ही उसके योग्य पति हैं।” यह सुनकर युधिष्ठिर ने अर्जुन की ओर देखा। उनका संकेत समझकर अर्जुन ने विराट से कहा, “हे राजन, मत्स्य वंश और भरत वंश का यह सम्बंध उचित ही है। मैं आपकी इस पुत्री को अपनी पुत्रवधु के रुप में स्वीकार करता हूँ।” विराट ने पूछा, “आप इसे भार्या के रुप में क्यों नहीं स्वीकार करते? अर्जुन ने उत्तर दिया, “आपके अंत:पुर में रहते हुए मैंने इस पुत्री को गुप्त और प्रकट रुप में देखा है। इसने पिता तुल्य मेरा विश्वास किया। यह मुझे सदा प्यार करती रही और नृत्य एंव गान के शिक्षक आचार्य के रुप में मानती रही। मैं इसकी वयस्क अवस्था में वर्षभर इसके साथ शुद्ध जितेंद्रिय भाव से रहा हूँ। इसलिए अपनी पुत्रवधु के रुप में इसे स्वीकार करता हूँ। वासुदेव कृष्ण का भांजा, उनका अत्यंत प्रिय अभिमन्यु मेरा पुत्र है। वही आपकी इस पुत्री का अनुरुप पति और आपका जामाता होगा।” मत्स्यराज विराट ने अत्यन्त प्रसन्न होकर इसे स्वीकार किया। तब युधिष्ठिर ने भी इस सम्बंध की अनुमति दी। फिर पाचों पाण्डव विराट के उपलव्य नगर में आये और उन्होंने अपने सब सम्बंधियों को बुलाया। वहीं अर्जुन ने कृष्ण को और अभिमन्यु को भी बुलाया। आनर्त देश से दाशार्ह, काशिराज, शैब्य, यज्ञसेन, द्रौपदी के वीर पुत्र, शिखंडी, धृष्टद्युम्न और अनेक राजा एकत्र हुए। बड़े उत्सव के साथ विराट ने अपनी कन्या का अभिमन्यु के साथ विवाह किया। उसमें कृष्ण ने पाण्डवों को भार के रुप में बहुत से रत्न-वस्त्रादि प्रदान किये। अनेक रुपवती अलंकृत स्त्रियों ने राजपुत्री उत्तरा को सामने किया और अर्जुन ने उसे स्वीकार किया और तब कृष्ण की उपस्थिति में उसका विवाह अभिमन्यु के साथ हुआ। कृष्ण जो धन लाये थे, वह सब युधिष्ठिर ने बाह्मणों में वितरण कर दिया। उस महोत्सव से मत्स्यराज विराट की वह पुरी अत्यंत सुशोभित हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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