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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 46-48
42. गोग्रहण
उसी समय उत्तर नगर में प्रविष्ट हुआ। राजभवन के द्वार पर पहुँचकर उसने प्रतीहार द्वारा पिता को सूचना भेजी। द्वारपाल ने भीतर जाकर विराट से कहा, ‘‘वृहन्नड़ा के साथ आपका पुत्र उत्तर द्वार पर आया है।’’ मत्स्यराज ने प्रसन्नता से कहा कि उन दोनों को शीघ्र यहाँ लिवा लाओ। युधिष्ठिर ने चुपके से द्वारपाल के कान में कहा, ‘‘उत्तर को अकेले यहाँ लाना, बृहन्नड़ा को नहीं। उसका यह व्रत है कि संग्राम के अतिरिक्त जो मुझे चोट पहुँचायगा, या मेरे शरीर का रक्त गिरायगा, उसे वह जीवित न छोडे़गा।’’ तब उत्तर ने भीतर आकर पिता को प्रणाम किया, फिर धर्मराज को देखकर पूछा, ‘‘किसने इन्हें मारकर पाप किया है?’’ विराट ने कहा, ‘‘मैंने ही ऐसा किया है। यह तुम्हारी प्रशंसा सुनकर षण्ढ बृहन्नड़ा की प्रशंसा करने लगता था।’’ उत्तर ने कहा, ‘‘हे राजन आपने बहुत अनुचित किया। शीघ्र इन्हें प्रसन्न कीजिए, नहीं तो दारुण ब्रह्मविष आपको समूल जला डालेगा।’’ पुत्र की बात सुनकर विराट ने युधिष्ठिर से क्षमा मांगी। युधिष्ठिर ने राजा से कहा, ‘‘हे महाराज, मैंने आपको पहले ही क्षमा कर दिया। मैंने अपने भीतर क्रोध नहीं रखा। यदि मेरी नाक का यह रक्त भूमि पर गिर जाता, तो राष्ट्रसहित आपका विनाश निश्चित था। मैं आपको दोष नहीं देता।’’ जब रक्त बन्द हो गया तो बृहन्नड़ा ने प्रवेश किया और विराट और कंक को प्रणाम करके वह एक ओर बैठ गया। तब विराट ने अर्जुन के सामने फिर उत्तर की प्रशंसा की और उससे युद्ध का सब हाल पूछा। उत्तर ने कहा, ‘‘न मैंने गाएं जीतीं और न मैंने शत्रुओं को जीता। यह सब तो किसी देवपुत्र का कर्म है। मैं तो डरकर भाग रहा था, किन्तु उसने मुझे रोका। अकेले उस वीर ने छह महारथियों को परास्त किया।’’ विराट ने पूछा, ‘‘वह देवपुत्र कहाँ है? मैं उसे देखना चाहता हूँ।’’ उत्तर ने कहा, ‘‘वह प्रतापी देवपुत्र अन्तर्धान हो गया। मैं समझता हूँ, कल या परसों वह प्रकट होगा।’’ ऐसा कहे जाने पर विराट ने वहीं छिपकर रहते हुए अर्जुन को नहीं जान पाया। तब विराट की अनुमति से अर्जुन ने झीने और कीमती वस्त्र उत्तरा को प्रदान किये, जिन्हें पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। तब अर्जुन ने एकान्त में उत्तरा के साथ परामर्श करके निश्चित किया कि महाराज युधिष्ठिर के प्रति अब क्या व्यवहार करना चाहिए। तब तीसरे दिन पांचों पाण्डव स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण किये हुए और सब आभूषणों से अलंकृत हो युधिष्ठिर को आगे कर विराट की सभा में आये और राजा के योग्य आसनों पर बैठ गए। सबके बैठ जाने पर स्वयं विराट भी सभा में उपस्थित हुए। पाण्डवों को राजासन पर बैठा देख उन्होंने कंक से पूछा, ‘‘मैंने आपकों पासों का अधिकार दिया था, आप राजासन पर कैसे आ बैठे?’’ सुनकर अर्जुन ने कहा, ‘‘ये कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर हैं, जो इन्द्रासन पर बैठने के योग्य हैं।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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