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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 23-29
युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर सहदेव ने दक्षिण दिशा की ओर कूच किया। पहले शूरसेन मथुरा और उसके साथ सटे हुए मत्स्य देश (जयपुर-अलवर) को जीतकर अपने वश में कर लिया। इसी यात्रा में उसने अधिराज के स्वामी दन्तवक्र को करद बनाकर छोड़ दिया तथा अपरमत्स्य, पटच्चर और नवराष्ट्र के राजाओं को जीतकर कुन्ति जनपद (कोंतवार, ग्वालियर) के कुन्तिभोज को प्रीतिपूर्वक वश में किया। चर्मण्वती के तटवासी राजाओं को जीतता हुआ वह नर्मदा की ओर बढ़ गया और वहाँ बिन्द, अनुबिन्द राजाओं को जीतकर माहिष्मतीपुरी पहुँचा। वहाँ के राजा नील ने उसके साथ घोर संग्राम किया। त्रिपुरी (वर्तमान तेवर) के राजा को जीतकर अश्मक जनपद की राजधानी पोतन (वर्तमान पैठण) को जीता। वहाँ से सुराष्ट्र की ओर गया। भोजकट या विदर्भ के राजा भीष्मक के पास दूत भेजकर उससे सन्धि की। सुराष्ट्र में कृष्ण से मिलकर दक्षिण की ओर अनेक स्थानों को जीता। इन स्थानों में से शूर्पारक (वर्तमान सुपारा, मुम्बई के उत्तर समुद्र तट के पास), नासिक के आस पास दण्डक वन, मुरचीपत्तन (वर्तमान क्रंगनोर), संजयन्ती (वर्तमान संजन) तथा करहाटक (करहाड़) सुविदित हैं। ताम्रद्वीप सिंहल का पुराना नाम था। एकपाद जाति के लोग सम्भवतः उत्तरी कनाडा जिले के वनवासी नाम स्थान के रहने वाले थे। महाभारत के इस प्रकरण में देश और विदेश के नामों का और भी महत्त्वपूर्ण गुच्छक पाया जाता है। उस युग में (भरुकच्छ वर्तमान भड़ोंच) नर्मदा के मुख पर बहुत बड़ा समुद्रपत्तन (बन्दरगाह) था। वहाँ से पश्चिम और दक्षिण की ओर जाने वाले पोत अपनी यात्रा आरम्भ करते थे। आंध्र सात-वाहनों के समय में भारतीय जलयान एक ओर भरुकच्छ से पश्चिमी वेलातट के जलपत्तनों को छूते हुए केरल, चोल, पाण्ड्य, द्रविड़, आंध्र और कलिंग तक की यात्रा करते थे। इन सबका उल्लेख महाभारतकार ने किया हैः पांण्डयांश्चद्रविडांश्चैव सहितांश्चोडकेरलैः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभा0 28। 48
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