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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 23-29
इस प्रसंग में दक्षिण की ओर के दो प्रदेशों का नाम और लिया गया है- गोपाल-कच्छ अर्थात ग्वालियर या कोंतवार प्रदेश के कछारों में रहने वाले लोगों का और शुक्तिमान पर्वत के निवासियों का। शुक्तिमान भारतवर्ष के सात कुलपर्वतों में से एक था। ये सातों कुलपर्वत भारत के प्राकृतिक मानचित्र में स्पष्ट सिलसिलेवर दिखाई पड़ते हैं। महेन्द्र पूर्वीघाट का उत्तर भाग, मलय दक्षिणी और सह्याद्रि पश्चिमी घाट के नाम हैं। इसके बाद सतपुड़ा और महादेव पहाड़ियां क्रम से आती हैं, जो शुक्तिमान ज्ञात होती हैं। इसी पर्वत-श्रृंखला का पूर्वी भाग, जो सोन की उपत्यका में आगे बढ़ा हुआ है, ऋक्षपर्वत होना चाहिए। दोनों के उत्तर में विन्ध्य और उसी का उत्तर-दक्षिण का बढ़ाव अड़ावला पर्वत पारियात्र था। पूर्व के अन्य देशों में काशी, वत्स, भर्ग, मगध और अंग जनपदों के नाम हैं, जिन्हें भीमसेन ने करद बनाया। गया का भी उल्लेख है, उसी के पास पशुभूमि सम्भवतः गिरिव्रज के आसपास थी, जो गया के उत्तर-पूर्व और राजगृह के पश्चिम में है। जैन आगमों में दी हुई प्राचीन परिभाषाओं के अनुसार दस सहस्र गौवों की इकाई एक व्रज कहलाती थी। इस प्रकार अनेक व्रजों से भरा हुआ प्रदेश पशु-भूमि रहा होगा। वस्तुतः गोरथगिरि के पास पांच पहाड़ियों से घिरा हुआ प्रदेश गिरिव्रज कहलाता था (जो जरासन्ध की राजधानी थी) और उसके बाहर के मैदानों की व्रज-भूमि पशु-भूमि। इसी प्रसंग में मत्स्य और मलय के भी नाम हैं। मत्स्य की पहचान निश्चित नहीं, किन्तु दोनों के पाठन्तर मल्ल और मलद भी उपलब्ध हैं, जो इस प्रदेश के भूगोल से संगत होते हैं। शर्मक-वर्मक नामक क्षत्रियों की पहचान लिच्छवियों से की गई है। भीमसेन ने इनके साथ और विदेहराज जनक के साथ शान्तिपूर्वक सन्धि की। मिथिला में रहते हुए ही उसने इन्द्र पर्वत के समीप रहने वाले सात किरात राजाओं को भी विजित बनाया। यह कोसी और गण्डकी के बीच नेपाल का भाग होना चाहिए। मगध में जरासन्ध के पुत्र ने कर देना स्वीकार किया, किन्तु अंगदेश (मुंगेर-भागलपुर) के राजा कर्ण ने उसका मार्ग रोका और युद्ध द्वारा ही वश में किया जा सका। पौण्ड्र, वंग और सुह्य के राजाओं को जीतकर समुद्र के तटवर्ती म्लेच्छ राजाओं को भी वश में किया और असम में लौहित्य तक बढ़ गया। इस प्रकार कोटिशत संख्य धन के साथ भीमसेन इन्द्रप्रस्थ लौट आया और उसे धर्मराज के चरणों में निवेदित किया। पूर्व दिशा के वर्णन में कुछ ही नाम ऐसे रह जाते हैं, जिनकी पक्की पहचान अभी अम्भव नहीं हुई, अन्यथा महाभारत के इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि इन्द्रप्रस्थ से समुद्रतट और लौहित्य तक का व्यौरेवार भूगोल लेखक को विदित था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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