विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 165-168
इसी प्रसंग में वसिष्ठ और विश्वामित्र के वैर के सूचक वासिष्ठ उपाख्यान का भी वर्णन किया गया है। अर्जुन ने वसिष्ठ के विषय में जानना चाहा तो गन्धर्व ने कहा, “वसिष्ठ ब्रह्मा के मानस पुत्र और अरुन्धती के पति हैं। काम और क्रोध, जिन्हें कोई मर्त्य या देवता नहीं जीत पाता, उनका चरण-संवाहन करते हैं। विश्वामित्र के अपकार करने पर भी वसिष्ठ ने कुशिकों का विनाश नहीं किया। अपने पुत्रों के क्षय से संतप्त होने पर भी वसिष्ठ ने विश्वामित्र के विनाश के लिए मन में विचार नहीं किया‚ और न यमराज के नियमों का अतिक्रमण करके अपने पुत्रों को पुनः जीवित करने की इच्छा की। वसिष्ठ को पुरोहित बनाकर ही इच्वाकुओं ने इतनी उन्नति की।” अर्जुन ने प्रश्न किया कि विश्वामित्र और वसिष्ठ इन दोनों में परस्पर वैर होने का कारण क्या था? गन्धर्व ने उत्तर दिया कि कान्यकुब्ज में कुशिक के पुत्र गाधि के पुत्र विश्वामित्र राज्य करते थे। वह एक बार मृगया के लिए वन में पर्यटन करते हुए वसिष्ठ के आश्रम में जा पहुँचे। वसिष्ठ ने अपनी गौ नन्दिनी के प्रभाव से विश्वामित्र और उनकी सेना का उत्तम सत्कार किया। विश्वामित्र ने वसिष्ठ से नन्दिनी गौ मांगी और बदले में अपना राज्य तक देना चाहा। वैसा न होने पर विश्वामित्र ने नन्दिनी का बलपूर्वक अपहरण करना चाहा, किन्तु नन्दिनी ने अपने प्रभाव से पल्लव, द्रविड़, शक, यवन, पौण्ड्र, किरात, सिंहल, बर्बर, पुलिंद, चीन, हूण, केरल, म्लेच्छ आदि जातियों को उत्पन्न कर विश्वामित्र को परास्त कर दिया। इससे खिन्न हो विश्वामित्र ने अपने क्षात्र-बल को धिक्कारा और तपस्या द्वारा ब्रह्म-बल प्राप्त करके इन्द्र के साथ सोम-पान किया। वसिष्ठ-विश्वमित्र के पारस्परिक वैर के कारण की कई कल्पनाएं महाभारत में ही मिलती हैं। शल्य-पर्व में लिखा है कि स्थाणु तीर्थ में सरस्वती नदी के एक ओर वसिष्ठ का आश्रम और दूसरी ओर विश्वमित्र का आश्रम था। दोनों में तप की स्पर्द्धा से मनोमालिन्य हुआ। यही आदिपर्व में उनके वैर को यहाँ तक बढ़ा हुआ कहा है कि इक्ष्वाकुवंशी सुदासपुत्र कल्माषपाद राजा और वसिष्ठ पुत्र शक्ति में खटपट हो गई, शक्ति ने उसे शाप दिया, तब विश्वामित्र ने राजा की राक्षसी वृत्ति को उभाड़कर शक्ति और वसिष्ठ के अन्य पुत्रों का नाश करवा डाला। वसिष्ठ को दुःख तो बहुत हुआ, पर उन्होंने क्रोध नहीं किया। किसी नरभक्षक कल्माषपाद नामक यक्ष की कथा जातकों में भी पाई जाती है। उसके मूल में कोई लोक कथा रही होगी, जिसका इक्ष्वाकुवंशीय कल्माषपाद के साथ सम्बन्ध जुड़ गया। अग्निपर्ण गन्धर्व से विदा लेते हुए अर्जुन ने इतना और पूछा कि ऐसा वेदज्ञ श्रेष्ठ पुरोहित कौन है, जो हमारे अनुरूप हो। गन्धर्व ने उत्कोचक तीर्थ में रहने वाले धौम्य ऋषि का नाम बताया। तब पाण्डव धौम्य के आश्रम में गए और विधिपूर्वक धौम्य को अपना पुरोहित वरण किया। वहाँ से वे पांचों पाण्डव माता कुन्ती के साथ दक्षिण पांचाल देश के राजा द्रुपद की राजधानी में होने वाले देव-महोत्सव को देखने के लिए चले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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