ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 44
किंतु विद्या और मन्त्र प्रदान करने वाला गुरु अभीष्टदेव से भी सौगुना बढ़कर है। जो अज्ञानरूपी अन्धकार से आच्छादित हुए समस्त पदार्थों को ज्ञानदीपकरूपी नेत्र से दिखलाता है, उससे बढ़कर बान्धव कौन है? गुरु द्वारा दिये गये मन्त्र और तप से अभीष्ट सुख, सर्वज्ञता और समस्त सिद्धियों की प्राप्ति होती है; अतः गुरु से बढ़कर बान्धव दूसरा कौन है? गुरु द्वारा दी गयी विद्या के बल से मनुष्य सर्वत्र समय पर विजयी होता है, इसलिये जगत में गुरु से बढ़कर पूज्य और उनसे अधिक प्रिय बन्धु कौन हो सकता है? जो मूर्ख विद्यामद अथवा धनमद से अंधा होकर गुरु की सेवा नहीं करता, वह ब्रह्महत्या आदि पापों से लिपायमान होता है; इसमें संशय नहीं है। जो दरिद्र, पतित एवं क्षुद्र गुरु के साथ साधारण मानव की भाँति आचरण करता है, वह तीर्थस्नायी होने पर भी अपवित्र है और उसका कर्मों के करने में अधिकार नहीं है। शिव! जो छल-कपट करके माता, पिता, भार्या, गुरुपत्नी और गुरु का पालन-पोषण नहीं करता, वह महान पापी है। गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु ही महेश्वरदेव, गुरु ही परब्रह्म, गुरु ही सूर्यरूप, गुरु ही चन्द्र, इन्द्र, वायु, वरुण और अग्निरूप हैं। यहाँ तक कि गुरु स्वयं सर्वरूपी ऐश्वर्यशाली परमात्मा हैं। वेद से उत्तम दूसरा शास्त्र नहीं है, श्रीकृष्ण से बढ़कर दूसरा देवता नहीं है, गंगा के समान दूसरा तीर्थ नहीं है और तुलसी से उत्तम दूसरा पुष्प नहीं है[1]। पृथ्वी से बढ़कर दूसरा क्षमावान नहीं है, पुत्र से अधिक दूसरा कोई प्रिय नहीं है, दैव से बढ़कर शक्ति नहीं है और एकादशी से उत्तम व्रत नहीं है। शालग्राम से बढ़कर यन्त्र, भारत से उत्तम क्षेत्र और पुण्यस्थलों में वृन्दावन के समान पुण्यस्थान नहीं है। मोक्षदायिनी पुरियों में काशी और वैष्णवों में शिव के समान दूसरा नहीं है। न तो पार्वती से अधिक कोई पतिव्रता है और न गणेश से उत्तम कोई जितेन्द्रिय है। न तो विद्या के समान कोई बन्धु है और गुरु से बढ़कर कोई अन्य पुरुष है। विद्या प्रदान करने वाले के पुत्र और पत्नी भी निस्संदेह उसी के समान होते हैं। गुरु की स्त्री और पुत्र की परशुराम ने अवहेलना कर दी है, उसी का सम्मार्जन करने के लिये मैं तुम्हारे घर आया हूँ। श्रीनारायण कहते हैं– नारद! वहाँ भगवान विष्णु शिव जी से ऐसा कहकर दुर्गा को समझाते हुए सत्य के साररूप उत्तम वचन बोले। विष्णु ने कहा– देवि! मैं नीतियुक्त, वेद का तत्त्वरूप तथा परिणाम में सुखदायक वचन कहता हूँ, मेरे उस शुभ वचन को सुनो। गिरिराजकिशोरी! तुम्हारे लिये जैसे गणेश और कार्तिकेय हैं, निस्संदेह उसी प्रकार भृगुवंशी परशुराम भी हैं। सर्वज्ञे! इनके प्रति तुम्हारे अथवा शंकर जी के स्नेह में भेदभव नहीं है। अतः मातः! सब पर विचार करके जैसा उचित हो, वैसा करो। पुत्र के साथ पुत्र का यह विवाद तो दैवदोष से घटित हुआ है। भला, दैव को मिटाने में कौन समर्थ हो सकता है? क्योंकि दैव महाबली है। वत्से! देखो, तुम्हारे पुत्र का ‘एकदन्त’ नाम वेदों में विख्यात है। वरानने! सभी देव उसे नमस्कार करते हैं। ईश्वरि! सामवेद में कहे हुए अपने पुत्र के नामाष्टक स्तोत्र को ध्यान देकर श्रवण करो। मातः! वह उत्तम स्तोत्र सम्पूर्ण विघ्नों का नाशक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नास्ति वेदातं परं शास्त्रं न हि कृष्णात् परः सुरः। नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न पुष्पं तुलसीपरम्।।-(गणपतिखण्ड 44। 72)
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