ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 42
भगवती दक्षिणा के प्राकट्य का प्रसंग, उनका ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तोत्र-वर्णन एवं चरित्र-श्रवण की फल-श्रुति भगवान नारायण कहते हैं– मुने! भगवती स्वाहा और स्वधा का परम मधुर उत्तम उपाख्यान सुना चुका। अब मैं भगवती दक्षिणा के आख्यान का वर्णन करूँगा। तुम सावधान होकर सुनो। प्राचीन काल की बात है, गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी एक गोपी थी। उसका नाम सुशीला था। उसे श्रीराधा की प्रधान सखी होने का सौभाग्य प्राप्त था। वह धन्य, मान्य एवं मनोहर अंगवाली गोपी परम सुन्दरी थी। सौभाग्य में वह लक्ष्मी के समान थी। उसमें पातिव्रत्य के सभी शुभ लक्षण संनिहित थे। वह साध्वी गोपी विद्या, गुण और उत्तम रूप से सदा सुशोभित थी। कलावती, कोमलांगी, कान्ता, कमललोचना, सुश्रोणी, सुस्तनी, श्यामा और न्यग्रोधपरिमण्डला– ये सभी विशेषण उसमें उपयुक्त थे। उसका प्रसन्न मुख सदा मुस्कान से भरा रहता था। रत्नमय अलंकार उसकी शोभा बढ़ाते थे। उसके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पा के समान गौर थी। बिम्बाफल के समान लाल-लाल ओष्ठ तथा मृग के सदृश मनोहर नेत्र थे। हंस के समान मन्दगति से चलने वाली उस कामिनी सुशीला काम-शास्त्र का सम्यक ज्ञान था। वह सम्पूर्ण भाव से भगवान श्रीकृष्ण में अनुरक्त थी। उनके भाव को जानती और उनका प्रिय किया करती थी। एक समय परमेश्वरी श्रीराधा ने सुशीला को कह दिया– ‘आज से तुम गोलोक में नहीं आ सकोगी।’ तदनन्तर श्रीकृष्ण वहाँ से अन्तर्धान हो गये। तब देव देवेश्वरी भगवती श्रीराधा रासमण्डल के मध्य रासेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को जोर-जोर से पुकारने लगीं; परंतु भगवान ने उन्हें दर्शन नहीं दिये। तब तो श्रीराधा अत्यन्त विरहकातर हो उठीं। उन साध्वी देवी को विरह का एक-एक क्षण करोड़ों युगों के समान प्रतीत होने लगा। उन्होंने करुण प्रार्थना की- ‘श्रीकृष्ण! श्यामसुन्दर! आप मेरे प्राणनाथ हैं। मैं आपके प्रति प्राणों से भी बढ़कर प्रेम करती हूँ। आप शीघ्र यहाँ पधारने की कृपा कीजिये। भगवन! आप मेरे प्राणों के अधिष्ठाता देव हैं। आपके बिना अब ये प्राण नहीं रह सकते। स्त्री पति के सौभाग्य पर गर्व करती है। पति के साथ प्रतिदिन उसका सुख बढ़ता रहता है। अतएव साध्वी स्त्री को धर्मपूर्वक पति की सेवा में ही सदा तत्पर रहना चाहिये। पति ही कुलीन स्त्रियों के लिये बन्धु, अधिदेवता, नित्य-आश्रय, परम सम्पत्तिस्वरूप तथा मूर्तिमान सुख है। पति ही धर्म, सुख, निरन्तर प्रीति, सदा शान्ति, सम्मान एवं मान देने वाला है। वही उसके लिये माननीय है, वही उसके मान (प्रणयकोप) को शान्त करने वाला है। स्वामी ही स्त्री के लिये सार से भी सारतम वस्तु है। वही बन्धुओं में बन्धुभाव को बढ़ाने वाला है। सम्पूर्ण बान्धवजनों में पति के समान दूसरा कोई बन्धु नहीं दिखायी देता। वह स्त्री का भरण करने से ‘भर्ता’, पालन करने से ‘पति’, शरीर का मालिक होने से ‘स्वामी’ तथा कामना की पूर्ति करने से ‘कान्त’ कहलाता है। सुख की वृद्धि करने से ‘बन्धु’, प्रीति प्रदान करने से ‘प्रिय’, ऐश्वर्य का दाता होने से ‘ईश’, प्राण का स्वामी होने से ‘प्राणनाथ’ तथा रति-सुख प्रदान करने से ‘रमण’ कहलाता है। अतः स्त्रियों के लिये पति से बढ़कर दूसरा कोई प्रिय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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