ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 2
परमात्मा के महान उज्ज्वल तेजःपुंज, गोलोक, वैकुण्ठलोक और शिवलोक की स्थिति का वर्णन तथा गोलोक में श्यामसुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के परात्पर स्वरूप का निरूपण शौनक जी ने पूछा – सूतनन्दन! आपने कौन-सा परम अद्भुत, अपूर्व और अभीष्ट पुराण सुना है, वह सब विस्तारपूर्वक कहिये। पहले परम उत्तम ब्रह्मखण्ड की कथा सुनाइये। सौति ने कहा – मैं सर्वप्रथम अमित तेजस्वी गुरुदेव व्यास जी के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ। तत्पश्चात श्रीहरि को, सम्पूर्ण देवताओं को और ब्राह्मणों को प्रणाम करके सनातन धर्मों का वर्णन आरम्भ करता हूँ। मैंने व्यास जी के मुख से जिस सर्वोत्तम ब्रह्मखण्ड को सुना है, वह अज्ञानान्धकार का विनाशक और ज्ञान मार्ग का प्रकाशक है। ब्रह्मन! पूर्ववर्ती प्रलयकाल में केवल ज्योतिष्पुंज प्रकाशित होता था, जिसकी प्रभा करोड़ों सूर्यों के समान थी। वह ज्योतिर्मण्डल नित्य है और वही असंख्य विश्व का कारण है। वह स्वेच्छामय रूपधारी सर्वव्यापी परमात्मा का परम उज्ज्वल तेज है। उस तेज के भीतर मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं। विप्रवर! तीनों लोकों के ऊपर गोलोक–धाम है, जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई तीन करोड़ योजन है। वह सब ओर मण्डलाकार फैला हुआ है। परम महान तेज ही उसका स्वरूप है। उस चिन्मय लोक की भूमि दिव्य रत्नमयी है। योगियों को स्वप्न में भी उसका दर्शन नहीं होता। परंतु वैष्णव भक्तजन भगवान की कृपा से उसको प्रत्यक्ष देखते और वहाँ जाते हैं। अप्राकृत आकाश अथवा परम व्योम में स्थित हुए उस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा ने अपनी योगशक्ति से धारण कर रखा है। वहाँ आधि, व्याधि, जरा, मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है। उच्चकोटि के दिव्य रत्नों द्वारा रचित असंख्य भवन सब ओर से उस लोक की शोभा बढ़ाते हैं। प्रलयकाल में वहाँ केवल श्रीकृष्ण रहते हैं और सृष्टिकाल में वह गोप-गोपियों से भरा रहता है। गोलोक से नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण भाग में वैकुण्ठ और वामभाग में शिवलोक है। ये दोनों लोक भी गोलोक के समान ही परम मनोहर हैं। मण्डलाकार वैकुण्ठ लोक का विस्तार एक करोड़ योजन है। वहाँ भगवती लक्ष्मी और भगवान नारायण सदा विराजमान रहते हैं। उनके साथ उनके चार भुजा वाले पार्षद भी रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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