ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 16
कार्तिकेय का नन्दिकेश्वर के साथ कैलास पर आगमन, स्वागत, सभा में जाकर विष्णु आदि देवों को नमस्कार करना और शुभाशीर्वाद पाना श्रीनारायण जी कहते हैं– नारद! शंकरसुवन कार्तिकेय नन्दिकेश्वर से यों कहकर शीघ्र ही कृत्तिकाओं को समझाते हुए नीतियुक्त वचन बोले। कार्तिकेय ने कहा– माताओ! मैं देवसमुदाय, बन्धुवर्ग तथा माता को देखना चाहता हूँ; अतः शंकर जी के निवास स्थान पर जाऊँगा, इसके लिये आप लोग मुझे आज्ञा प्रदान करें। सारा जगत, शुभदायक जन्म-कर्म, संयोग-वियोग सभी दैव के अधीन हैं। दैव से बढ़कर दूसरा कोई बली नहीं है। वह दैव श्रीकृष्ण के वश में रहने वाला है; क्योंकि वे दैव से परे हैं। इसीलिये संत लोग उन ऐश्वर्यशाली परमात्मा का निरन्तर भजन करते हैं। अविनाशी श्रीकृष्ण अपनी लीला से दैव को बढ़ाने और घटाने में समर्थ हैं। उनका भक्त दैव के वशीभूत नहीं होता- ऐसा निर्णीत है। इसलिये आपलोग इस दुःखदायक मोह का परित्याग कीजिये और जो सुखदाता, मोक्षप्रद, सारसर्वस्व, जन्म-मृत्यु के भय के विनाशकर्ता, परमानन्द के जनक और मोह-जाल के उच्छेदक हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि सभी देवगण जिनका निरन्तर भजन करते हैं, उन गोविन्द की भक्ति कीजिये। इस भवसागर में मैं आप लोगों का कौन हूँ और आपलोग मेरी कौन हैं? संसार-प्रवाह का वह सारा कर्म फेन की भाँति पुंजीभूत हो गया है। (वस्तुतः कोई किसी का नहीं है) संयोग अथवा वियोग– यह सब ईश्वर की इच्छा से ही होता है। यहाँ तक कि सारा ब्रह्माण्ड ईश्वर के अधीन है, वह भी स्वतन्त्र नहीं है– ऐसा विद्वान लोग कहते हैं। सारी त्रिलोकी जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है, फिर भी माया से मोहित चित्तवाले लोग इस अनित्य जगत में माया का विस्तार करते हैं; परंतु जो श्रीकृष्णपरायण संत हैं, वे जगत में रहते हुए भी वायु की भाँति लिप्त नहीं होते। इसलिये माताओ! आपलोग मोह का परित्याग करके मुझे जाने की आज्ञा दीजिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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