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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 121
श्रृगालोपाख्यान श्रीनारायण कहते हैं- नारद! एक समय की बात है। श्रीकृष्ण अपने गणों के साथ सुधर्मा सभा में विराजमान थे। उसी समय वहाँ एक ब्राह्मण देवता आये, जो ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। वहाँ आकर उन्होंने पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का दर्शन किया और भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की। फिर वे शान्त एवं भयभीत हो विनयपूर्वक मधुर वचन बोले। ब्राह्मण ने कहा- प्रभो! वासुदेव श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज है; वह आपकी अत्यंत निन्दा करता है और कहता है कि ‘वैकुण्ठ में चतुर्भुज देवाधिदेव लक्ष्मीपति वासुदेव मैं ही हूँ। मैं ही लोकों का विधाता और ब्रह्मा का पालक हूँ। पृथ्वी का भार उतारने के लिए ब्रह्मा ने मेरी प्रार्थना की थी; इसी कारण भारत वर्ष में मेरा आगमन हुआ है। मैंने महाबली दैत्यराज हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, मधु और कैटभ को मारकर सृष्टि की रक्षा की है। मैं ही स्वयं ब्रह्मा, मैं ही स्वयं शिव तथा मैं ही लोकों का पालक एवं दुष्टों का संहारक विष्णु हूँ। सभी मनुगण तथा मुनिसमुदाय मेरे अंशकला से उत्पन्न हुए हैं। मैं स्वयं प्रकृति से परे निर्गुण नारायण हूँ। भद्र! अब तक मैंने तुम्हें लज्जा तथा कृपा के कारण मित्र-बुद्धि से क्षमा कर दिया था; किंतु जो बीत गया, सो बीत गया; अब तुम मेरे साथ युद्ध करो। मैंने दूत के मुख से सुना है कि तुम्हारा अहंकार बहुत बढ़ गया है; अतः उसका दमन करना उचित है। ऊँचे सिर उठाने वालों को कुचल डालना राजा का परम धर्म है और इस समय मैं ही पृथ्वी का शासक हूँ। मैं स्वयं चतुर्भुज रूप धारण करके शंख-चक्र-गदा-पद्म लेकर सेना सहित युद्ध के लिए उस द्वारका को जाऊँगा।’ यदि तुम्हारी इच्छा हो तो युद्ध करो; अन्यथा मेरी शरण ग्रहण करो। यदि तुम शरणागत होकर मेरी शरण में नहीं आ जाओगे तो मैं क्षणभर में ही द्वारका को भस्म कर डालूँगा। मैं अकेला ही लीलापूर्वक क्षणभर में सेना, पुत्र, गण और बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हें जला डालने में समर्थ हूँ।’ मनु! यों कहकर वह ब्राह्मण मौन हो गया। उसे सुनकर सदस्यों सहित श्रीकृष्ण ठठाकर हँस पड़े। फिर उन्होंने ब्राह्मण का भलीभाँति आदर सत्कार करके उन्हें चारों प्रकार के पदार्थ (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) भोजन कराये। श्रृगाल के वाग्बाण उनके मन में कसक पैदा कर रहे थे; इसलिए बड़े क्षोभ से उन्होंने वह रात बितायी। प्रातःकाल होते ही वे बड़ी उतावली के साथ हर्षपूर्वक गणों सहित रथ पर सवार हो सहसा वहाँ जा पहुँचे, जहाँ राजा श्रृगाल था। उनके आने का समाचार सुनकर राजा श्रृगाल कृत्रिम रूप से चार भुजा धारण करके गणोंसहित युद्ध के लिए श्रीहरि के स्थान पर आया। श्रीकृष्ण ने मित्र बुद्धि से उसकी ओर स्नेहभरी दृष्टि से देखकर मुस्कराते हुए मधुर वचनों द्वारा लौकिक रीति से उससे वार्तालाप किया। राजा श्रृगाल ने श्रीकृष्ण को निमंत्रित किया; परंतु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। तब वह श्रीकृष्ण से भयभीत हो उनके दर्शन से दम्भ को त्यागकर यों कहने लगा। श्रृगाल बोला- प्रभो! आप चक्र द्वारा मेरा शिरश्छेदन करके शीघ्र ही द्वारका को लौट जाइये, जिससे मेरा यह अनित्य एवं नश्वर पापी शरीर समाप्त हो जाय। भगवन! जय-विजय की तरह मैं भी आपके द्वारपाल हूँ। मेरा नाम सुभद्र है। लक्ष्मी के शाप से मैं भ्रष्ट हो गया था; अब मेरा वह समय पूरा हो गया है। सौ वर्ष के बाद शाप के समाप्त हो जाने पर मैं पुनः आपके भवन को जाऊँगा। सर्वज्ञ! आप तो सब कुछ जानते ही हैं; अतः विलम्ब मत कीजिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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