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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 74-75
श्रीकृष्ण द्वारा नन्द जी को ज्ञानोपदेश, लोकनीति, लोकमर्यादा तथा लौकिक सदाचार से संबंध रखने वाले विविध विधि-निषेधों का वर्णन, कुसंग और कुलटा की निन्दा, सती और भक्त की प्रशंसा, शिवलिंग पूजन एवं शिव की महत्ता श्रीनारायण कहते हैं- नारद! भगवान श्रीकृष्ण परमानन्दमय परिपूर्णतम प्रभु हैं। भक्तों पर अनुग्रह के लिए व्याकुल रहने वाले परम परमात्मा हैं। पृथ्वी का भार व्याकुल रहने वाले परम परमात्मा हैं। पृथ्वी का भार उतारने के लिए अवतीर्ण हुए वे भगवान निर्गुण, प्रकृति से परे तथा परात्पर हैं। ब्रह्मा, शिव और शेष भी उनके चरणों की वन्दना करते हैं। नन्द जी की स्तुति सुनकर वे जगदीश्वर बहुत संतुष्ट हुए। नन्द बाबा विरहज्वर से कातर हो गोकुल से उनके पास आये थे। श्रीभगवान ने कहा- ‘बाबा! शोक और भ्रम को छोड़ो तथा व्रज को लौट जाओ। वहाँ जाकर सबको आनन्दित करो। मैं जो परम सत्य ज्ञान बता रहा हूँ, इसे सुनो। यह ज्ञान शोकग्रंथि का उच्छेद करने वाला है।’ यों कह पञ्चभूतों का वर्णन करते हुए श्रीहरि ने नन्द बाबा को उत्तम ज्ञान का उपदेश दिया और अंत में कहा- ‘तात! मेरे भक्तों का कहीं अमंगल नहीं होता। मेरा सुदर्शन चक्र प्रतिदिन उनकी सब ओर से रक्षा करता है। मेरी यह बात यशोदा मैया से, गोपियों से और गोपगणों से कहो। उन सबके साथ शोक को त्याग दो। अच्छा अब घर को जाओ।’ यों कहकर भगवान श्रीकृष्ण यादवों की सभा में चुप हो गये। तब आनन्दमग्न नन्द ने पुनः उनसे पूछा। नन्द बोले- परमानन्दस्वरूप गोविन्द! मैं मूढ़ हूँ और तुम वेदों के उत्पादक हो। मुझे ऐसा लौकिक ज्ञान बताओ, जिससे तुम्हारे चरणों को प्राप्त कर सकूँ। नन्द जी की यह बात सुनकर सर्वज्ञ भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें श्रुतिदुर्लभ आह्निक-कृत्य संबंधी ज्ञान प्रदान किया। श्रीभगवान बोले- तात! मैं तुम्हें वह परम अद्भुत ज्ञान प्रदान करता हूँ, जो वेदों में अत्यंत गोपनीय और पुराणों में अत्यंत दुर्लभ है, कुलटा स्त्रियाँ मोक्ष-मार्ग के द्वार को ढकने के लिए अर्गलाएँ हैं, भ्रम और माया की सुंदर भूमियाँ हैं; उन पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। व्रजराज! असाध्वी स्त्रियाँ हरि भक्ति के विरुद्ध होती हैं। वे नाश की बीजारूपा हैं। उन पर विश्वास करना कदापि उचित नहीं है। प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर रात में पहने हुए कपड़ों को त्याग दे और हृदय-कमल में इष्टदेव तथा ब्रह्मरन्ध्र में परम गुरु का चिन्तन करे। मन-ही-मन उनका चिन्तन करके प्रातःकालिक कृत्य पूर्ण करने के पश्चात बुद्धिमान पुरुष निश्चय ही निर्मल जल में स्नान करे। कर्म का उच्छेद करने वाला भक्त कोई कामना या संकल्प नहीं करता। वह स्नान करके भगवान का स्मरण करता और संध्या करके घर को लौट जाता है। दरवाजे पर दोनों पैर धोकर वह घर में प्रवेश करे और धुले हुए दो वस्त्र (धोती-चादर) धारण करके मोक्ष के कारणभूत मुझ परमात्मा का ही पूजन करे। शालग्राम, मणि, यन्त्र, प्रतिमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा गुरु में सामान्य रूप से मेरी स्थिति मानकर इनमें कहीं भी मेरी पूजा करनी चाहिए। कलश में, अष्टदल कमल में तथा चंदन निर्मित पात्र में भी मेरी पूजा की जा सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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