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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 102
बलराम सहित श्रीकृष्ण का विद्या पढ़ने के लिए महर्षि सांदीपनि के निकट जाना, गुरु और गुरुपत्नी द्वारा उनका स्वागत और विद्याध्ययन के पश्चात गुरुदक्षिणा रूप में गुरु के मृतक पुत्र को उन्हें वापस देकर घर लौटना श्रीनारायण कहते हैं- नारद! श्रीकृष्ण ने बलराम के साथ हर्षपूर्वक सांदीपनि के गृह जाकर अपने उन गुरुदेव तथा पतिव्रता गुरुपत्नी को नमस्कार किया और उन्हें भेंटरूप में रत्न एवं मणि समर्पित की। तत्पश्चात उनसे शुभाशीर्वाद लेकर वे श्रीहरि उन गुरुदेव से यथोचित वचन बोले। श्रीकृष्ण ने कहा- विप्रवर! आपसे अपनी अभीष्ट विद्या प्राप्त करूँगा- ऐसी मेरी लालसा है; अतः शुभ मुहूर्त निश्चय करके मुझे यथोचित रूप से विद्याध्ययन कराइये। तब ‘ऊँ- बहुत अच्छा’- यों कहकर मुनिवर सांदीपनि ने हर्षपूर्वक मधुपर्कप्राशन, गौ, वस्त्र और चंदन द्वारा उनका आदर-सत्कार किया, मिष्टान्न भोजन कराया, सुवासित पान का बीड़ा दिया, मधुर वार्तालाप किया और उन परमेश्वर का स्तवन करते हुए कहा। सांदीपनि बोले- भक्तों के प्राणवल्लभ! तुम परब्रह्मा, परमधाम, परमेश्वर, परात्पर, स्वेच्छामय, स्वयं ज्योति, निर्लिप्त, अद्वितीय, निरंकुश, भक्तों के एकमात्र स्वामी, भक्तों के इष्टदेव, भक्तानुग्रहमूर्ति और भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिए कल्पतरु हो। ब्रह्मा, शिव और शेष तुम्हारी वन्दना करते हैं। तुम पृथ्वी का भार हरण करने के लिए इस भूतल पर मायावश बालरूप में अवतीर्ण हुए हो और माया से ही भूपाल बने हो। योगीलोग जिसे सनातन ब्रह्मज्योति जानते हैं, भक्तगण अपने हृदय में जिस ज्योति का हर्षपूर्वक ध्यान करते हैं, जिनके दो भुजाएँ हैं, हाथ में मुरली सुशोभित है, सर्वांग में चंदन का अनुलेप लगा हुआ है, जिनका सुन्दर श्याम रूप है, जो मन्द मुस्कानयुक्त, भक्तवत्सल, पीताम्बरधारी, वनमाला विभूषित और लीला-कटाक्षों से कामदेव को उपहासास्पद एवं मूर्च्छित कर देने वाले हैं, जिनका चरणकमल अलक्तक के उत्पत्ति स्थान की भाँति अत्यंत शोभायमान है और शरीर कौस्तुभमणि से उद्भासित हो रहा है, जिनकी मनोहर दिव्य मूर्ति है, जो हर्षवश मन्द-मन्द मुस्करा रहे हैं, जिनका सुंदर वेश है, देवगण जिनकी स्तुति करते हैं, जो देवों के देव, जगदीश्वर, त्रिलोकी को मोहित करने वाले, सर्वश्रेष्ठ, करोड़ो कामदेवों की सी कान्तिवाले, कमनीय, ईश्वर रहित (स्वयं ईश्वर), अमूल्य रत्नों के बने हुए भूषणों से विभूषित, श्रेष्ठ सर्वोत्तम, वरदाता, वरदाताओं के इष्टदेव और चारों वेदों तथा कारणों के भी कारण हैं; वही तुम लीलावश पढ़ने के लिए मेरे प्रिय स्थान पर आये हो। तुम तो स्वात्मा में रमण करने वाले, सर्वव्यापी एवं परिपूर्णतम हो; अतः तुम्हारे विद्याध्ययन, रमण, गमन और युद्ध आदि सभी कार्य लोक शिक्षा के लिए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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