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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 83
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, संन्यासी तथा विधवा और पतिव्रता नारियों के धर्म का वर्णन नन्द जी ने पूछा- बेटा! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम वेदों तथा ब्रह्मा आदि की उत्पत्ति का सारा कारण वर्णन करो; क्योंकि तुम्हारे सिवा मैं और किससे पूछूँ? साथ ही ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों का कार्य करने वालों के जो धर्म हैं तथा संन्यासियों, यतियों, ब्रह्मचारियों, वैष्णव-ब्राह्मणों, सत्पुरुषों, विधवाओं एवं पतिव्रता नारियों, गृहस्थों, गृहस्थ पत्नियों, विशेषतया शिष्यों और माता-पिता के प्रति पुत्रों एवं कन्याओं के जो धर्म हैं; उन सबको बतलाने की कृपा करो। प्रभो! स्त्रियों की कितनी जातियाँ होती हैं? भक्तों के कितने भेद हैं? ब्रह्माण्ड कितने प्रकार का है? वदन (बोली या मुख) किस प्रकार का होता है? नित्य क्या है और कृत्रिम क्या है? क्रमशः यह सब बतलाओ। श्री भगवान ने कहा- नन्द जी! ब्राह्मण सदा संध्यावन्दन से पवित्र होकर मेरी सेवा करता है और नित्य मेरे प्रसाद को खाता है। वह मुझे निवेदन किये बिना कभी भी नहीं खाता; क्योंकि जो विष्णु को अर्पित नहीं किया गया है, वह अन्न विष्ठा और जल मूत्र के समान माना जाता है। अतः विष्णु के प्रसाद को खाने वाला ब्राह्मण जीवन्मुक्त हो जाता है। नित्य तपस्या में संलग्न रहने वाला, पवित्र, शमपरायण, शास्त्रज्ञ, व्रतों और तीर्थों का सेवी, नाना प्रकार के अध्यापन कार्य से संयुक्त धर्मात्मा ब्राह्मण विष्णु मंत्र से दीक्षित होकर गुरु की सेवा करता है; तत्पश्चात उनकी आज्ञा लेकर संग्रवहान (गृहस्थ) बनता है। उसे गुरु को नित्य-पूजन की दक्षिणा देनी चाहिए तथा निःसंदेह नित्य गुरुजनों का पालन-पोषण करना चाहिए; क्योंकि समस्त वन्दनीयों में पिता ही महान गुरु माना जाता है, परंतु पिता से सौगुनी माता, माता से सौगुना अभीष्टदेव और अभीष्टदेव से चारगुना मन्त्र-तन्त्र प्रदान करने वाला गुरु श्रेष्ठ है। गुरु प्रत्यक्षरूप में ऐश्वर्यशाली भगवान नारायण हैं। गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु और गुरु ही स्वयं शिव हैं। सभी देवता गुरु में सदा हर्षपूर्वक निवास करते हैं। जिसके संतुष्ट होने पर सभी देवता संतुष्ट हो जाते हैं, वे श्रीहरि भी गुरु के प्रसन्न होने पर प्रसन्न हो जाते हैं। गुरु यदि शिष्यों पर पुत्र के समान स्नेह नहीं करते तो उन्हें ब्रह्महत्या का पाप लगता है और आशीर्वाद न देने से उन्हें भी वह फल भोगना पड़ता है। जो विप्र सदा अपने धर्म में तत्पर, ब्रह्मज्ञ तथा सदा विष्णु की सेवा करने वाला है; वही पवित्र है। उसके अतिरिक्त अन्य विप्र सदा अपवित्र रहता है। जो ब्राह्मण होकर बैलों को जोतता है, शूद्रों की रसोई बनाता है, देवमूर्तियों पर चढ़े हुए द्रव्य से जीवन-निर्वाह करता है, संध्या नहीं करता, उत्साहहीन है, दिन में नींद लेता है, शूद्र के श्राद्धान्न को खाता है, शूद्रों के मुर्दों का दाह करता है; ऐसे सभी ब्राह्मण शूद्र के समान माने जाते हैं। जो विधिपूर्वक शालग्राम महायन्त्र की पूजा करके उनके अर्पित किए हुए नैवेद्य को खाता है तथा उनके चरणोदक को पीता है; वह संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। उसे विष्णुलोक की प्राप्ति होती है; क्योंकि श्रीहरि का चरणोदक पीकर मनुष्य तीर्थस्नायी हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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