ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 18
शंखचूड़ का पुष्पभद्रा नदी के तट पर जाना, वहाँ भगवान शंकर के दर्शन तथा उनसे विशद वार्तालाप भगवान नारायण कहते हैं- नारद! राजा शंखचूड़ श्रीकृष्ण का भक्त था। वह मन में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके ब्राह्ममुहूर्त में ही अपनी पुष्पमयी शैय्या से उठ गया। उसने स्वच्छ जल से स्नान करके रात के वस्त्र त्याग दिये। धुले हुए दो वस्त्रों को पहनकर उज्ज्वल तिलक कर लिया; फिर इष्ट देवता के वन्दन आदि प्रतिदिन के आवश्यक कर्तव्यों को पूरा किया। दही, घृत, मधु और लाजा आदि मांगलिक वस्तुएँ देखीं। नारद! प्रतिदिन की भाँति उसने भक्ति पूर्वक ब्राह्मणों को उत्तम रत्न, मणि, स्वर्ण और वस्त्र प्रदान किये। यात्रा मंगलमयी होने के लिये उसने अमूल्य रत्न तथा कुछ मोती, मणि एवं हीरे भी अपने गुरुदेव ब्राह्मण की सेवा में समर्पित किये। वह अपने कल्याणार्थ श्रेष्ठ हाथी, घोड़े और सर्वोत्तम सुन्दर धन दरिद्र ब्राह्मणों को खुले हाथों बाँटने लगा। उस समय हजारों वस्तुपूर्ण भवन, लाखों नगर तथा असंख्य गाँव शंखचूड़ ने दानरूप में ब्राह्मणों को दिये। इसके बाद उसने अपने पुत्र को सम्पूर्ण दानवों का राजा बनाकर उसे अपनी प्रेयसी पत्नी, राज्य, सम्पूर्ण सम्पत्ति, प्रजा एवं सेवक वर्ग, कोष तथा हाथी-घोड़े आदि वाहन सौंप दिये। उसने स्वयं कवच पहन लिया। हाथ में धनुष और बाण ले लिये। सब सैनिकों को एकत्र किया। तीन लाख घोड़े और पाँच लाख उत्तम श्रेणी के हाथी उपस्थित हुए। दस हजार रथ तथा तीन-तीन करोड़ धनुर्धारी, ढाल-तलवारधारी और त्रिशूलधारी वीर उसकी सेना के अंग बने। नारद! इस प्रकार दानेश्वर शंखचूड़ ने अपरिमित सेना सजा ली। युद्ध शास्त्र के पारगामी एक महारथी वीर को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। महारथी उसे समझना चाहिये जो रथियों में श्रेष्ठ हो। राजा शंखचूड़ ने उस महारथी को अगणित अक्षौहिणी सेना पर अधिकार प्रदान कर दिया। उस सेनाध्यक्ष में ऐसी योग्यता थी कि स्वयं तीस अक्षौहिणी सेना से अपनी सेना को बचा सकता था। तत्पश्चात् शंखचूड़ मन-ही-मन भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करता हुआ बाहर निकला। उत्तम रत्नों से बने हुए विमान पर सवार हुआ और गुरुवरों को आगे करके भगवान शंकर की सेवा में चल दिया। नारद! पुष्पभद्रा (या चन्द्रभागा) नदी के तट पर एक सुन्दर अक्षयवट है। वहीं सिद्धों के बहुत-से आश्रम हैं। उस स्थान को सिद्ध क्षेत्र कहा गया है। वह पवित्र स्थान भारतवर्ष में है। इसे कपिल मुनि की तपोभूमि कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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