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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 29
श्रीराधा के साथ श्रीकृष्ण का वन-विहार, वहाँ अष्टावक्र मुनि के द्वारा उनकी स्तुति तथा मुनि का शरीर त्यागकर भगवच्चरणों में लीन होना भगवान नारायण कहते हैं– नारद! तदनन्तर प्रेम-विह्वला गोपियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने विविध भाँति से रास-क्रीड़ा की। गोपियाँ उन्मत्ता-सी हो गयीं। तब श्रीकृष्ण राधिका को लेकर वहाँ से अन्तर्धान हो गये तथा अनेक सुरम्य वनों, पर्वतों, सरोवरों एवं नदी-तटों पर ले जाकर राधिका को आनन्द प्रदान करते रहे। श्रीराधा के साथ भ्रमण करते हुए श्यामसुन्दर ने अपने सामने एक वट-वृक्ष देखा, जिसकी शाखाओं का अग्रभाग बहुत ही ऊँचा था। उस वृक्ष का विस्तार भी बहुत अधिक था। उसके नीचे एक योजन तक का भूभाग छाया से घिरा हुआ था। केतकीवन भी वहाँ से निकट ही था। श्रीकृष्ण राधा के साथ वहीं बैठे थे। शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु उस स्थान को सुवासित कर रही थी। हर्ष से भरे हुए श्रीकृष्ण ने वहाँ राधा से चिरकाल तक पुरातन एवं विचित्र रहस्य को बताने वाली कथाएँ कहीं। इसी समय उन्होंने वहाँ आते हुए एक श्रेष्ठ मुनि को देखा, जिनके मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिले हुए थे। परमात्मा श्रीहरि के जिस रूप का वे ध्यान करते थे, उसे हृदय में न देखकर उनका ध्यान टूट गया था। अब वे अपने सामने बाहर ही उस रूप का प्रत्यक्ष दर्शन करने लगे थे। उनका शरीर काला था। सारे अवयव टेढ़े-मेढ़े थे और वे नाटे तथा दिगम्बर थे। उनका नाम था– अष्टावक्र। वे ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रहे थे। उनका मस्तक जटाओं से भरा था और वे अपने मुँह से आग उगल रहे थे, मानो मुखद्वार से उनकी तपस्या जनित तेजोराशि ही प्रकट हो रही हो। अथवा वे ऐसे लगते थे, मानो उनके रूप में स्वयं ब्रह्मतेज ही मूर्तिमान-सा हो गया हो। उनके नख और मूँछ-दाढ़ी के बाल बढ़े हुए थे। वे तेजस्वी और परम शान्त थे तथा भयभीत हो भक्तिभाव से दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाये हुए थे। उन्हें देख राधा हँसने लगीं; परंतु माधव ने उन्हें ऐसा करने से रोका और उन महात्मा मुनीन्द्र के प्रभाव का वर्णन किया। मुनिवर अष्टावक्र ने गोविन्द को प्रणाम करके उनकी स्तुति की। पूर्वकाल में महात्मा भगवान शंकर ने उन्हें जिस स्तोत्र का उपदेश दिया था, उसी को उन्होंने सुनाया। अष्टावक्र बोले– प्रभो! आप तीनों गुणों से परे होकर भी समस्त गुणों के आधार हैं। गुणों के कारण गुणस्वरूप हैं। गुणियों के स्वामी तथा उनके आदिकारण हैं। गुणनिधे! आपको नमस्कार है। आप सिद्धिस्वरूप हैं। समस्त सिद्धियाँ आपकी अंशस्वरूपा हैं। आप सिद्धि के बीज और परात्पर हैं। सिद्धि और सिद्धगणों के अधीश्वर हैं तथा समस्त सिद्धों के गुरु हैं; आपको नमस्कार है। वेदों के बीजस्वरूप परमात्मन! आप वेदों के ज्ञाता, वेदवान और वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। वेद भी आपको पूर्णतः नहीं जान सके हैं। रूपेश्वर! आप वेदज्ञों के भी स्वामी हैं; आपको नमस्कार है। आप ब्रह्मा, अनन्त, शिव, शेष, इन्द्र और धर्म आदि के अधिपति हैं। सर्वस्वरूप सर्वेश्वर! आप शर्व (महादेव जी)– के भी स्वामी हैं; सबके बीजरूप गोविन्द! आपको नमस्कार है। आप ही प्रकृति और प्राकृत पदार्थ हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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