ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड : अध्याय 23
देवताओं के स्तवन करने पर महालक्ष्मी का प्रकट होकर देवों और मुनियों के समक्ष अपने निवास-योग्य स्थान का वर्णन करना नारायण कहते हैं – नारद! तदनन्तर इन्द्र गुरु बृहस्पति तथा अन्यान्य देवों को साथ लेकर लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये प्रसन्न-मन से शीघ्र ही क्षीरसागर के तट पर गये। वहाँ उन्होंने अमूल्य रत्न की गुटिका से युक्त कवच को गले में बाँधकर पुनः-पुनः उस दिव्य स्तोत्र का मन-ही-मन स्मरण किया। फिर सब लोगों ने भक्तिभावपूर्वक कमलवासिनी लक्ष्मी का स्तवन किया। उस समय उनके सिर भक्ति के कारण झुके हुए थे और अत्यन्त दीनतावश नेत्रों में आँसू छलक आये थे। उनके द्वारा की गयी स्तुति को सुनकर सहस्रदल-कमल पर वास करने वाली तथा सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान कान्तिमयी महालक्ष्मी तुरंत ही वहाँ प्रकट हो गयीं। मुने! उन जगन्माता की उत्तम प्रभा से सारा जगत व्याप्त हो गया। तदनन्तर जगत का धारण-पोषण करने वाली लक्ष्मी ने देवताओं से यथोचित हितकारक एवं साररूप वचन कहा। श्री महालक्ष्मी बोलीं– बच्चो! तुम लोग ब्रह्मशाप के कारण भ्रष्ट हो गये हो, अतः मेरा तुम लोगों के घर जाने का विचार नहीं है। इस समय मैं ऐसा करने में समर्थ नहीं हूँ; क्योंकि मैं ब्रह्मशाप से डर रही हूँ। ब्राह्मण मेरे प्राण हैं। वे सभी सदा मुझे पुत्र से ही बढ़कर प्रिय हैं। वे ब्राह्मण जो कुछ देते हैं, वही मेरी जीविका का साधन होता है। यदि वे विप्र प्रसन्नतापूर्वक मुझसे कहें तो मैं उनकी आज्ञा से चल सकूँगी। वे तपस्वी मेरी पूजा करने में समर्थ नहीं हैं। जब अभाग्य का समय आ जाता है, तभी वे गुरु, ब्राह्मण, देव, संन्यासी तथा वैष्णवों द्वारा शापित होते हैं। जो सबके कारण, ऐश्वर्यशाली, सर्वेश्वर और सनातन हैं, वे भगवान नारायण भी ब्रह्मशाप से भय मानते हैं। ब्रह्मन! इसी बीच अंगिरा, प्रचेता, क्रतु, भृगु, पुलह, पुलस्त्य, मरीचि, अत्रि, सनक, सनन्दन, तीसेर सनातन, साक्षात नारायणस्वरूप भगवान सनत्कुमार, कपिल, आसुरि, वोढु, पंचशिख, दुर्वासा, कश्यप, अगस्त्य, गौतम, कण्व, और्व, कात्यायन, कणाद, पाणिनि, मार्कण्डेय, लोमश और स्वयं भगवान वसिष्ठ– ये सभी ब्राह्मण हर्षपूर्ण-चित्त से वहाँ आये। वे सभी ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे और उनके मुखों पर मुस्कराहट थी। उन्होंने अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री से भगवती लक्ष्मी का पूजन किया और देवताओं ने उन्हें वन्य पदार्थों का नैवेद्य समर्पित किया। फिर उन मुनीश्वरों ने हर्ष के साथ उनकी स्तुति करके भक्तिपूर्वक उनका आराधन किया और कहा–‘जगदम्बिके! आप देवलोक तथा मर्त्यलोक में पधारिये।’ उनका यह वचन सुनकर जगज्जननी संतुष्ट हो गयीं और ब्राह्मणों की आज्ञा से निर्भय हो चलने के लिये उद्यत होकर उनसे बोलीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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