ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 7
पार्वती द्वारा व्रतारम्भ, व्रत-समाप्ति में पुरोहित द्वारा शिव को दक्षिणारूप में माँगे जाने पर पार्वती का मूर्च्छित होना, शिव जी तथा देवताओं और मुनियों का उन्हें समझाना, पार्वती का विषाद, नारायण का आगमन और उनके द्वारा पति के बदले गोमूल्य देकर पार्वती को व्रत समाप्त करने का आदेश, पुरोहित द्वारा उसका अस्वीकार, एक अद्भुत तेज का आविर्भाव और देवताओं, मुनियों तथा पार्वती द्वारा उसका स्तवन श्रीनारायण जी कहते हैं– नारद! तदनन्तर हर्ष से गद्गद हुए मन वाले शिवजी ने श्रीहरि की आज्ञा स्वीकार करके श्रीहरि के साथ किये गये मांगलिक वार्तालाप को प्रेमपूर्वक पार्वती से कह सुनाया। तब पार्वती का मन प्रसन्न हो गया। फिर तो उन्होंने शिवजी की आज्ञा मानकर उस मंगलव्रत के अवसर पर मांगलिक बाजा बजाया। फिर सुन्दर दाँतों वाली पार्वती ने भलीभाँती स्नान करके शरीर को शुद्ध किया और स्वच्छ साड़ी तथा चद्दर धारण किया। तत्पश्चात जो चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुमकुम से विभूषित, फल और अक्षत से सुशोभित तथा आम के पल्लव से संयुक्त था, ऐसे रत्नकलश को चावल की राशि पर स्थापित किया। फिर रत्नों के उद्भवस्थान हिमालय की कन्या सती पार्वती ने, जो रत्नों से विभूषित तथा रत्नजटित आसन पर विराजमान थी, रत्नसिंहासनों पर समासीन मुनिश्रेष्ठों की पूजा करके चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और रत्नाभरणों से भूषित तथा रत्नसिंहासन पर विराजमान पुरोहित की समर्चना की। इसके बाद विधि-विधान के अनुसार रत्नभूषित दिक्पालों, देवताओं, मनुष्यों और नागों को आगे स्थापित करके भक्तिपूर्वक उनका भलीभाँति पूजन किया। फिर पुण्यक-व्रत में, जिनकी अग्नि में तपाकर शुद्ध किये गये बहुमूल्य रत्नों के भूषणों, उत्तम-उत्तम वस्त्रों तथा पूजनोपयोगी नाना प्रकार की सामग्रियों से पूजा की गयी थी और जो चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुमकुम से सुशोभित थे, उन ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की परम भक्तिपूर्वक समर्चना की। मुने! तत्पश्चात पार्वती देवी ने स्वस्तिवाचनपूर्वक व्रत आरम्भ किया। तदनन्तर उत्तम व्रत का आचरण करने वाली सती ने उस मंगल-कलश पर अपने अभीष्ट देवता श्रीकृष्ण का आवाहन करके उन्हें भक्तिपूर्वक क्रमशः षोडशोपचार समर्पित किया। फिर व्रत में जिन अनेक प्रकार के द्रव्यों के देने का विधान है, एक-एक करके उन सभी फलदायी पदार्थों को प्रदान किया। पुनः व्रत के लिये कहा गया उपहार, जो त्रिलोकी में दुर्लभ है, वह सब भी भक्ति सहित अर्पण किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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