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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 27
गोपकिशोरियों द्वारा गौरी-व्रत का पालन, दुर्गा-स्तोत्र और उसकी महिमा, समाप्ति के दिन गोपियों को नग्न-स्नान करती जान श्रीकृष्ण द्वारा उनके वस्त्र आदि का अपहरण, श्रीराधा की प्रार्थना से भगवान का सब वस्तुएँ लौटा देना, व्रत का विधान, दुर्गा का ध्यान, गौरी-व्रत की कथा, लक्ष्मीस्वरूपा वेदवती का सीता होकर इस व्रत के प्रभाव से श्रीराम को पतिरूप में पाना, सीता द्वारा की हुई पार्वती की स्तुति, श्रीराधा आदि के द्वारा व्रतान्त में दान, देवकी का उन सबको दर्शन देकर राधा को स्वरूप की स्मृति कराना, उन्हें अभीष्ट वर देना तथा श्रीकृष्ण का राधा आदि को पुनः दर्शन-सम्बन्धी मनोवांछित वर देना भगवान श्रीनारायण कहते हैं– नारद! सुनो। अब मैं पुनः श्रीकृष्ण-लीला का वर्णन करता हूँ। यह वह लीला है, जिसमें गोपियों के चीर का अपहरण हुआ और उन्हें मनोवांछित वरदान दिया गया। हेमन्त के प्रथम मास-मार्गशीर्ष में गोपांगनाएँ प्रेम के वशीभूत हो प्रतिदिन केवल एक बार हविष्यान्न ग्रहण करके पूर्णतः संयमशील हो पूरे महीने भर भक्तिभाव से व्रत करती रहीं। वे नहाकर यमुना के तट पर पार्वती की बालुकामयी मूर्ति बना उसमें देवी का आवाहन करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक नित्यप्रति पूजा किया करती थीं। मुने! गोपियाँ चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, कुंकुम, नाना प्रकार के मनोहर पुष्प, भाँति-भाँति के पुष्पहार, धूप, दीप, नैवेद्य, वस्त्र, अनेकानेक फल, मणि, मोती और मूँगे चढ़ाकर तथा अनेक प्रकार के बाजे बजाकर प्रतिदिन देवी की पूजा सम्पन्न करती थीं। हे देवि जगतां मातः सृष्टिस्थित्यन्तकारिणि। ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाली हे देवि! हे जगदम्ब! तुम्हीं जगत की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली हो; तुम हमें नन्दगोप-नन्दन श्यामसुन्दर को ही प्राणवल्लभ पति के रूप में प्रदान करो।’ इस मन्त्र से देवेश्वरी दुर्गा की मूर्ति बनाकर संकल्प करके मूलमन्त्र से उनका पूजन करे। सामवेदोक्त मूलमन्त्र बीजमन्त्र सहित इस प्रकार है – इसी मन्त्र से सब गोपकुमारियाँ भक्तिभाव और प्रसन्नता के साथ देवी को फूल, माला, नैवेद्य, धूप, दीप और वस्त्र चढ़ाती थीं। मूँगे की माला से भक्तिपूर्वक इस मन्त्र का एक सहस्र जप और स्तुति करके वे धरती पर माथा टेककर देवी को प्रणाम करती थीं। उस समय कहतीं कि ‘समस्त मंगलों का भी मंगल करने वाली और सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली शंकरप्रिये देवि शिवे! तुम्हें नमस्कार है। तुम मुझे मनोवांछित वस्तु दो।’ यों कह नमस्कार करके दक्षिणा दे सारे नैवेद्य ब्राह्मणों को अर्पित करके वे घर को चली जाती थीं। भगवान श्रीनारायण कहते हैं– मुने! अब तुम देवी का वह स्तवराज सुनो, जिससे सब गोपकिशोरियाँ भक्तिपूर्वक पार्वती जी का स्वतन करती थीं, जो सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाली हैं। जब सारा जगत घोर एकार्णव में डूब गया था; चन्द्रमा और सूर्य की भी सत्ता नहीं रह गयी थी; कज्जल के समान जलराशि ने समस्त चराचर विश्व को आत्मसात कर लिया था; उस पुरातन काल में जलशायी श्रीहरि ने ब्रह्माजी को इस स्तोत्र का उपदेश दिया। उपदेश देकर उन जगदीश्वर ने योगनिद्रा का आश्रय लिया। तदनन्तर उनके नाभिकमल में विराजमान ब्रह्मा जी जब मधु और कैटभ से पीड़ित हुए, तब उन्होंने इसी स्तोत्र से मूलप्रकृति ईश्वरी का स्तवन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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