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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 124
वसुदेव जी का शंकर जी से भव-तरण का उपाय पूछना, शंकर जी का उन्हें ज्ञानोपदेश देकर राजसूय यज्ञ करने का आदेश देना, वसुदेव जी द्वारा राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान और यज्ञान्त में सर्वस्व दक्षिणा में देकर उनका द्वारका को लौटना नारद जी ने पूछा- विभो! गणेशपूजन और राधा स्तोत्र से बढ़कर वहाँ कौन सी रहस्यमयी घटना घटित हुई; उसका मुझसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। श्रीभगवान बोले- नारद! गणेशपूजन-तीर्थ में जितने देवता, मुनि और योगीन्द्र पधारे हुए थे; वे सभी वटवृक्ष के नीचे समासीन थे। उनमें से शम्भु, ब्रह्मा, शेषनाग और श्रेष्ठ मुनियों से वसुदेव और देवकी ने परमादरपूर्वक यों प्रश्न किया- ‘हे महाभाग!’ आपलोग दीनों के बन्धु हैं; अतः शीघ्र ही बताइये कि हम दीनों के लिए इस भवसागर से पार करने वाला कौन सा उत्तम साधन है? आपलोग भवसागर से पार करने वाली नौका के नाविक हैं; क्योंकि न तो तीर्थ ही केवल जलमय हैं और न देवगण ही केवल मिट्टी और पत्थर की मूर्तिमात्र होते हैं। जितने यज्ञ, पुण्य, व्रत-उपवास, तप, अनेकविध दान, विप्रों और देवताओं की अर्चनाएँ हैं; ये सभी चिरकाल में कर्ता को पावन बनाती हैं; परंतु वैष्णवजन दर्शन से ही पवित्र कर देते हैं। विष्णुभक्त संतों के पावन चरणकमलों की रज के स्पर्शमात्र से वसुन्धरा तत्काल ही पावन हो जाती है और तीर्थ, समुद्र तथा पर्वत भी पवित्र हो जाते हैं। देवगण भी उन वैष्णवों के पातकरूपी ईंधन का विनाश कर देने वाले दर्शन की अभिलाषा करते हैं। जैसे दूध, दही और रस परम स्वादिष्ट होते हैं; उसी प्रकार ज्ञान परमानन्ददायक होता है। उस ज्ञान को जो ज्ञानी के साहचर्य से नहीं समझ पाता, वह अज्ञानी है। ज्ञानियों के गुरु के भी गुरु भगवन! जैसे मैं श्रीकृष्ण का पिता और चिरकाल का संगी हूँ; उसी तरह देवकी की भी उनकी माता है। वसुदेव जी की बात सुनकर स्वयं भगवान शंकर, जो चारों वेदों के भी जनक एवं गुरु हैं, हँस पड़े और इस प्रकार बोले। श्री महादेव जी ने कहा- अहो! ज्ञानियों के संनिकट रहना भी उनके अनादर का ही कारण होता है; जैसे गंगा के जल से पवित्र हुए लोग भी (गंगा का अनादर करके) सिद्धि के लिए अन्य तीर्थों में जाते हैं। वसुदेव के पिता ये वसुदेव स्वयं पंडित हैं और अपने पिता वस्तुस्वरूप ज्ञानी कश्यप के अंश से उत्पन्न हुए हैं। इनकी श्रीकृष्ण में पुत्र-बुद्धि है; इसीलिए ये श्रीकृष्ण के अंगभूत हमलोगों से ज्ञान पूछ रहे हैं। तदनन्तर श्रीमहादेव जी ने सर्वकारणकारण भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन करके कहा ‘यदुवंशी वसुदेव!’ सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ही सबके मूलरूप हैं; अतः राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करके उसमें अपने पुत्र श्रीकृष्ण की, जो यज्ञ के कारण एवं यज्ञेश हैं, समर्चना करो; फिर विधिपूर्वक दक्षिणा देकर भवसागर से पार हो जाओ। मुने! शिव जी का कथन सुनकर जितेन्द्रिय वसुदेव जी ने सामग्री जुटाकर शुभ मुहूर्त में राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया। उस यज्ञ में साक्षात यज्ञेश और दक्षिणा सहित ये यज्ञ वर्तमान थे; अतः देवताओं ने साक्षात प्रकट होकर वसुदेव जी पूर्णाहुति दे चुके; तब श्रीकृष्ण की आज्ञा से भगवान सनत्कुमार ने उनसे सर्वस्व दक्षिणा में देने के लिए कहा। तब जिनके नेत्र और मुख प्रफुल्लित थे; उन वसुदेव जी ने श्रीसनत्कुमार जी के आदेशानुसार ब्राह्मणों को सर्वस्व दक्षिणारूप में प्रदान कर दिया और ब्राह्मणों के शुभ मुखों द्वारा देवताओं को तृप्त किया। तत्पश्चात देवगण और मुनिसमुदाय उस रात में अपनी पत्नियों के साथ वहाँ सुखपूर्वक रहे और प्रातःकाल होने पर वे सभी श्रीकृष्ण की अनुमति से अपने-अपने स्थान को चले गये। तब सभी यदुवंशी भी रुक्मिणी की दृष्टि पड़ने से अमूल्य रत्नों से परिपूर्ण एवं श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित द्वारका को प्रस्थान कर गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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