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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 95-96
उद्धव का कथन सुनकर राधा का चैतन्य होना और अपना दुःख सुनाते हुए उद्धव को उपदेश देकर मथुरा जाने की आज्ञा देना श्री नारायण कहते हैं- नारद! उद्धव के वचन सुनकर राधिका की चेतना लौट आयी। वे उठकर उत्तम रत्नसिंहासन पर जा विराजीं। उस समय सात गोपियाँ भक्तिपूर्वक श्वेत चँवरों द्वारा उनकी सेवा कर रही थीं। तब देवी राधिका दुःखित हृदय से उद्धव से मधुर वचन बोलीं। श्रीराधिका ने कहा- वत्स! तुम मथुरा जाओ, परंतु वहाँ सुख में पड़कर मुझे भूल मत जाना। (यदि भूल जाओगे तो) इस भवसागर में तुम्हारे लिए इससे बढ़कर दूसरा अधर्म नहीं है। इस समय तुम जाकर परमानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण से मेरी सारी बात कह सुनाओ और शीघ्र ही मेरे स्वामी को यहाँ ले आओ। भला, जगत की युवतियों में किसको ऐसा दुःख है? श्रीकृष्ण के वियोगजन्य दुःख को मेरे अतिरिक्त और कौन जनती है? सीता को भी वियोग दुःख कुछ-कुछ ज्ञात है। त्रिलोकी में नारियों में मुझसे बढ़कर दुःखिया कोई नहीं है। बेटा उद्धव! किस युवती को मेरे समान दुःख है? भला, कौन नारी मेरी मानसिक व्यथा को सुनकर विश्वास करेगी? स्त्रियों में राधा के समान दुःखिया, विरह-संतप्त और सुख सौभाग्य से हीन नारी न हुई है और न आगे होगी। वत्स! जिनके नाम-श्रवणमात्र से पाँचों प्राण प्रहृष्ट हो जाते हैं तथा जिनके स्मरण मात्र से वे प्रफुल्ल हो उठते हैं और आत्मा परम स्निग्ध हो जाता है; जिन्होंने मेरा स्पर्श किया, इतने मात्र से ही जिससे तीनों भुवनों में मुझे यश की प्राप्ति हुई, उन परमेश्वर का किस समृद्धि को पाकर मैं विस्मरण कर सकती हूँ। तात! जो तीनों लोकों पर विजय पाने वाला रूप और गुण धारण करते हैं; जिन्हें ब्रह्मा ने नहीं रचा है बल्कि जो स्वयं ही ब्रह्मा के रचयिता हैं; जो कल्पवृक्ष से भी बढ़कर संपूर्ण सम्पत्तियों के दाता, शान्त, लक्ष्मीपति, मन को हरण करने वाले, सर्वेश्वर, सबके कारण स्वरूप, ऐश्वर्यशाली परमात्मा हैं; उन ब्रह्मा के भी विधाता अपने स्वामी श्रीकृष्ण को किस समृद्धि के प्रलोभन में पड़कर मैं भूल सकती हूँ? तात! ब्रह्मा, शिव और शेष आदि जिनके चरण कमल का ध्यान करते रहते हैं; उन प्रभु को मैं किस सुख के लोभ से विस्मृत कर सकती हूँ। पुत्र! जिन्हें स्वप्नों में भी उनके अनुपम मनोहर रूप का दर्शन हो जाता है; वे सब कुछ त्यागकर रात-दिन उन्हीं के ध्यान में मग्न हो जाते हैं। जिनके गुण से पर्वत पिघलकर पानी-पानी हो जाता है, शुष्क काष्ठ गीला हो जाता है, सूखे वृक्ष में नयी कोपलें निकल आती हैं, वायु का वेग रुक जाता है तथा सूर्य और सागर स्थगित हो जाते हैं; उन प्रियतम को मैं किस समृद्धि की प्राप्ति से भुला सकती हूँ? भक्तवर! जो काल के काल हैं; प्रलयकालीन मेघ, संहारकर्ता शिव और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के स्वामी हैं; जो स्वाधीन, स्वतंत्र और स्वयं ही आत्मा नामवाले हैं; उन प्रभु को मैं कौन सी संपत्ति पाकर भूल सकती हूँ? उन श्रीकृष्ण से वियुक्त होने पर (उस वियोगजन्य दुःख की शान्ति के लिए) कोई यथार्थ ज्ञान है ही नहीं, जिसके द्वारा कोई विद्वान मुझे सान्त्वना दे सके। सावित्री और सरस्वती भी मुझे समझाने में समर्थ नहीं हैं। वेद और वेदांग भी मुझे ढाढ़स नहीं बँधा सकते; फिर संतों और देवताओं की तो बात ही क्या है? सहस्र मुखवाले शेषनाग, वेदों के उत्पादक ब्रह्मा, योगीन्द्रों के गुरु के शम्भु और गणेश भी मुझे प्रबुद्ध नहीं कर सकते; क्योंकि जिसकी स्थित है उसी की गति का विचार किया जा सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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